बाबा दरिया दास : एगो परिचय

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परनाम ! स्वागत बा राउर जोगीरा डॉट कॉम प, आज रउवा के सामने बा बाबा दरिया दास जी के परिचय। बाबा दरिया दास जी के बारे हमनी के बता रहल बानी निर्भय नीर जी। निर्भय जी बाबा दरिया दास जी के बारे मे जानकारी इक्कठा क के हमनी के सामने रख रहल बानी। रउवा सब से निहोरा बा कि पढ़ला के बाद आपन राय जरूर दीं आ रउवा निर्भय नीर जी के दिहल जानकारी अच्छा लागल त आगे शेयर जरूर करी।

बाबा दरिया दास के बारे में

जन्म – संवत १७३१ वि०
पिता के नांव – पीरन साह ( पहिला नाम-पृथु साह ) जन्मस्थान – धरकंधा जिला आरा, बिहार
जाति – राजपुत ( धर्म बदलल तऽ मुसलमान )
भेस – गिरहस्थ विरक
भाषा- भोजपुरी, फारसी, आ अपभ्रंश हिन्दी।
मृत्यु – भादो वदी ४, ( १८३७ वि०)
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बाबा दरिया दास के व्यक्तित्व आ कृतित्व

दरिया दास के पुरखा पुरनिया लोग उज्जैन के छतरी (राजपुत) रहे। लोग उज्जैन से जाके बिहार सूबा में बसि गइल। जगदीशपुर जिला शाहाबाद में ई लोग रहत रहे आ ओनिए वोह लोग के राज रहे। महा महोपाध्याय पंडित सुधाकर दूबे के सोध के मोताबिक दरिया साहब के बाप पृथुदास, एगो दरजिन के लइकी से बिआह कइले रहन, आ वोहि बख्तऽ पृथुदास के नांव बदल के पीरन साह हो गइल। दरजिन औरंगजेब बादशाह के बेगम के आपन खास दरजिन रहे।

आपन नाया ससुरार में पीरन साह धरकंधा में जा के बसि गइलें। उहवे ननिहाल में दरिया साहब के जनम भइल। दरिया साहब के बिआह नव बरिस के उमिर में भइल रहे। उनकर औरत के नांव राममती रहे। बाकिर पंद्रह बरिस के उमिर में दरिया दास के मन संसार से उचट गइल आ अपना औरत के छोड़ के बैरागी हो गइलन आ फेरू गिरहस्ती में नाहिए अझुरइलें।

साधना करते-करते बीस बरिस के उमिर में दरिया साहब का पूरा गेयान आ भगति के प्रकाश हो गइल। तीस बरिस के उमिर में तख्त पर बइठ गइलन। तब लोग के साथे सत्संग करे लगलें आ सूतल मनई के जगावे आ चेतावे लगलें। दरिया साहब जहाँ-तहाँ घूमि-घूमि, लोग के अब सतपुरूष के भेद बतावे लगलें। कबीर दास लेखा दरिया साहब भी अवतार, मूरति-पूजा, तीरथ-यात्रा, जात-पात बगैरह के खंडन करे लगलें। कबीर दास जी के मत आ तत्त्व के छाप इनकरा ऊपर खूब पड़ल रहे। एहि से कुछ लोग इनकारा के कबीरदास जी के अवतार कहे लगलन।

बाबा दरिया दास : एगो परिचय | निर्भय नीर जी
बाबा दरिया दास : एगो परिचय | निर्भय नीर जी

दरिया पंथ के पाँच गो गद्दी बाटे। मसहूर गद्दी धरकंधा गांव में बा। धरकंधा गांव डुमराव (शाहाबाद) से करीब १४ मील के दूरी पर बसल बा। दरिया साहब के ३६ चेलन में मुख्य चेला दलदास जी रहन। दरिया पंथी लोग के ढेरे रिवाज मुसलमान लोग से मिलते-जुलते होला।प्रार्थना ई लोग खड़ा होके आ झूक के करेला। जवन के लोग “कोरनिश” कहेला आ बंदना के “सिरदा” माने “सिजदा” कहेलन। एह लोग के असली मंतर के नांव “बेवाहा” हऽ। हर साधु के लगे एगो माटी के हुक्का होला। जवन हुक्का के लोग “रखना” कहेला आ पानी पिए के बरतन के “भरुका” कहेला ।

बानी परिचय—
दरिया साहब के बनावल २० किताबन के पता चलल बा, बाकिर सब के अबहीं जानकारी पुरहर मात्रा में नइखे मिलल। एह सभन में “दरिया सागर” आ “ज्ञान दीपक” के विशेष रूप से जानकारी प्रकाश में आइल बा। डा० धर्मेंद्र ब्रह्मचारी शास्त्री के शोध में जवना-जवना किताबन के पता चलल, नीचे लिखल बा।

(१)दरिया सागर (२) विवेक सागर (३) ज्ञानदीपक (४) ब्रह्मविवेक (५) अमरसार (६) निर्भय ज्ञान (७) सहश्रानी (८) ज्ञानमाला (९) दरियानामा (१०) अग्रज्ञान (११) ब्रह्मचैतन्य (१२) ज्ञानमूल (१३) कालचरित्र (१४) यज्ञ समाधि (१५) ज्ञानस्वरोदय (१६) बीजक (१७) भक्तिहेतु (१८) ज्ञानरतन (१९) मूर्तिउखाड़ (२०) प्रेममूल।

दरिया साहब के पद में ज्ञान के साफ-साफ झलक पावल जाला। “सत पुरुष के रहस्य के वर्णन खूबे इनकर सजीव भइल बा। विनय आ विरह के छंदन में गहीर भाव के वर्णन बड़ा कोमल भाषा हिन्दी आ भोजपुरी में भइल बा। दरिया साहब के छंदन के कुछ बानगी देखले जाव…………….

(१) पद…

अबकी के बार बकसऽ मोरे साहब।
तुम लायक सब जोग, हे।।
गून बकसि हौ सब भ्रम नसिहौं।
राखिहौ आपन पास,हे।।
अछै विरछि त्रिवेणी लै बैठे हो।
तहवां धूप न छांह हे।।
चांद न सुरज दिवस नहिं तहवां।
नहिं निसु होत विहार, हे।।
अमृत फल मुख चाखन दैहौं।
सेज सुगंध सुहाय,हे।।
जुग जुग अचल अमर पद दैहौ।
इतना अरज हमार, हे।।
भाव सागर दुःख दारून मिटिहैं।
छुटि जैहौं कुल परिवार,हे।।
कह दरिया यह मंगल मूल।
अनूप फुलैला जहाँ फ़ूल,हे।।

(२) झूलना…..

प्रेम धगा यह टूटता ना,
गर टूटि कंठी फिर बांधना क्या ?
यह तत्त तिलक सतनाम छापा करू,
और विविध है साधना क्या ?
ग्यान का दंड न डगमगै कर,
दंड़ लिए काहू मारना क्या ?
यह झूलना दरिया साहिब कहा,
सतनाम सही बहु पेखना क्या ?
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दरिया सागर” के कुछ विशेष साखी, चौपाई, देखल जाव

साखी……

(१)

तीनि लोक के ऊपरे,
अभय लोक विस्तार।
सत्त सुकृत परवाना पावै,
पहुंचै जाय करार।।१।।
जोतिहि ब्रह्म विस्नु हहिं,
संकर योगी ध्यान।
सत्त पुरुष छपलोक महँ,
ताको सकल जहान।।२।।
सोभा अगम अपार,
हँसवंस सुख पावहीं।
कोइ ग्यानी करै विचार,
प्रेम तत्तु जा उर बसै।।३।।

(२)

सुमिरन माला भेख नहिं,
नहिं मसि को अंक।
सत सुकृत दृढ़ लाइकै,
तब तोरै गढ़ बंक।।१।।
ब्रह्मन वो संन्यासी,
सब सौं कहा बुझाय।
जो जन शब्द ही मानि है,
सइ संत ठहराय।।२।।

(३)

दरिया भव जल अगम अति,
सत गुरु करहु जहाज।
तेहि पर हँस चढाइ कै,
जाई करहू सुख राज।।१।।
कोठा महल अटरिया,
सुनेउ श्रवन वहु राग।
सतगुरु सबद चीन्हे बिना,
ज्यों पछिन महं कांग्रेस।।२।।

चौपाई….

(१)

जो सत् शब्द बिचारे कोई।
अभय लोक सीधारे सोई।।
कहन सुनन किमिकरि वनि आवे।
सत्तनाम निजु परचै पावै।।
लीजै निरखि भेद निजु सारा।
समझि परै तब उतरै पारा।।
कंचन डाहै पावक जाई।
ऐसे तन कै डाहहु भाई।।
जो हीरा घन सहै घनेरा।
होई हिं खर बहुरि न केरा।।
गहै मूल तब निर्मल वानी।
दरिया दिल बीच सुरति समानी।।
पारस शब्द कहा समुझाई।
सत्तगुरु मिलै त देहि दिखाई।।
सत्तगुरू सोई जो सत्त चलावे।
हँस बोधि छपलोक पढावै।।
घर-घर ज्ञान कधै विस्तारा।
सो नहिं पहुंचै लोक हमारा।।
आगम देव पुजहुं तुम भाई।
का जग पाति तोरहु जाई।।
पाति तोरि निर्गुन नहिं पाई।
आतम जीव घात इन्ह लाई।।‌

(२)

हिन्दू तुरुक एकै जाना।
जो यह मानै सब्द निसाना।।
साहब का एह सब जिव अहई। बुझि बिचार ज्ञान निजु कहहिं।। अन-पानी सब एकै होई।
हिन्दू तुरुक पूजा नहिं कोई।।
हिन्दू तुरुक इनि दुनो भुलाना।
दुनो वादि ही वादि विलाना।।
वो हिरनी वो गाइहिं खाई।
लोहू एक दूजा नहिं भाई।।
दूजा दुविधा जेहि नहिं होई।
भगत सुनाम कहावै सोई।।
ब्राह्मन हो जो ब्रह्महिं चीन्हा।
ध्यान लगाय रहै लवलीना।।
क्रोध मोह तृस्ना नहिं होई।
पंडित नाम सदा सोई।।
(३)
धनि ओह पंडित धनि ओई ग्यानी।
संत धन्न जिन्ह पद पहिचानी।।
धनि ओइ जोगी जुगुता मुकुता।
पाप पुन्न कबहीं नहिं भुगुता।।
धनि ओइ सीख जो करै विचारा।
धनि सत्तगुरू जो खेवनहारा।।
धनि ओइ नारि पिया संगि राती।
सोइ सोहागिनि कुल नहिं जाती।।
धन सब गाढ़ गहिर जो गाड़े।
छूटेउ माल जहां लगि भाड़े।।
भवन भया बन बाहर डेरा।
रोवहिं सब मिलि आंगन घेरा।।
खाट उठाई कांध करि लीन्हा।
बाहर जाइ अगिनि जो दिन्हा।।
जरि गई खलरी भसम उड़ाना।
सोचि चारि दिन कीन्हे उ ग्याना।।
फिरि धंधे लपटानी प्रानी।
विसारि गया ओइ नाम निसानी।।
खरचहु खाहु दया करु प्रानी।
ऐसे बुड़े बहुत अभिमानी।।
सत्तगुरू सब्द सांच एह मानी।
कह दरिया करु भगति बखानी।।
भूलि भरम एह मूल गंवावै।
ऐसन जनम कहां फिरि पावै।।

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