भोजपुरी कहानी खोपड़ी

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सोन नदी का रेती पर आदमी के एक-आध गो खोपड़ी गड़ल-पड़ल रहल कउनो अचरज के बात नइखे । काहें कि गाँव-जवार के लाश सोन नदी का कछारे पर जलावल जाला । एह से रेती पर आदमी के खोंपड़ी भा हाथ-गोड़ के हड्डी गड़ल-पड़ल लडकि गइल कउनो अनहोनी बात ना मानल जाय । बाकिर ओह खोपड़ी में ना जाने अइसन का रहे कि हम खिंचाइल-खिंचाइल ओकरा लगे चलि गइल रहीं । साफ-समतल रेती पर खोंपड़ी महादेव अस स्थापित रहे । हो-ना-हो कउनो अबाटी लड़िका ओह खोपड़ी के ओह रूप में स्थापित क दिहले रहे । अइसे, आम तौर पर त रेती पर पावल जाय वाला खोंपड़ी ढिलमिलाइले-तिलमिलाइल रहेला । खैर, खोपड़ी का लगे जा के हम बइठि गइल रहीं । फिर हम ओकरा के गौर से देखले रहीं । ओकर लिलार खूब चौड़ा रहे । माथा गोल रहे । माथा का ऊपर खिंचाइल करिया-करिया रेघारी माथा के कई खाना में ठीक ओसहीं बाँटत रहे जइसे बिहार के नक्शा में जिला बँटाइल रहेला ।

भोजपुरी कहानी खोपड़ी
भोजपुरी कहानी खोपड़ी

‘करम के लेख साइत एकरे के कहल जाला ।’ -ओह रेघारियन के देखि के हम सोचले रहीं । फिर हम रेती पर से बित्ता भर के एगो लकड़ी उठा लिहलें रहीं आ ओही लकड़ी से हम ओह खोपड़ी के गवें ठेल दिहले रहीं । हमरा ठेलते खोंपड़ी सहजे एक ओरि ढिलमिला गइल रहे । तब हम ओही लकड़ी से ओकरा के उलटि-पुलटि के देखले रहीं । खोपड़ी में दूनों आँख के जगहा पर एक-एक छेद रहे । दूनों कान के जगहा पर एक-एक छेद रहे । खोपड़ी के नाक ना रहे । बाकिर नाको के जगहा पर एगो छेद बनल रहे । खोपड़ी के निचिला जबड़ा ना रहे । खाली ऊपर वाला जबड़ा रहे, जउना में दूनों अलंग दू-दू गो चह रहे । ठीक से देखला पर खोपड़ी कउनो जवान भा अधबूढ़ आदमी के बुझात रहे । काहें कि लड़िका के खोंपड़ी ओतना बड़ ना हो सकत रहे आ जादे बूढ़ के खोपड़ी में चहू ना हो सकत रहे ।

‘अच्छा,ई मरद के खोपडी बा कि मेहरारू के?’ -ओही बीचे हमार मन ई सवाल दगले रहे तब हम एह सवाल के हल करे खातिर ओह खोपडी के फिर से कई दफा उलटले-पलटले रहीं । बाकिर एह सवाल के हल करे लायक कउनो अर्जा हमरा हाथे ना लागल रहे । तब हम अनसा के ओह खोपड़ी के नीचे लकड़ी पेस दिहले रहीं आ ओकरा के हवा में उछाल दिहले रहीं । खोंपड़ी उछलि गइल रहे आ दू-तीन हाथ अलगा जाके रेती पर धब्ब से गिरि गइल रहे । अब हम उहवाँ से उठि के गवें-गवें घर का ओरि चलि दिहले रहीं। ओह घरी सूरुज खपड़िया बाबा के बरगद के फुनगी पर बइठल कनखी से ताकत रहे । साँझ ओकरा के चहेटे के तइयारी में रहे आ सूरुज पलखत पावते भागि के फरहंगपुर के बगइचा में लुका जाय के फिराक में रहे । हमार गोड़ अब तेजी से घर का ओरि बढ़े लागल रहें ।

काहें कि हाथ-गोड़ धो के पढ़े बइठे के टाइम भइल आवत रहे । कुबेर भइला पर बाबूजी से इँटाए के डरो मन में रहे । एही से हम कुछ-कुछ हड़बड़ाइले घर का ओरि बढ़ल जात रहीं । बाकिर हमार मन अबहियों ओही खोपड़ी में अझुराइल रहे, जेकरा चलते हमरा सामने दोसर-दोसर कई गो सवाल खाड़ हो गइल रहे । तइयो ओह कुल्हि सवालन से लड़त-झगड़त हम घर के राह पर बढ़ले चलल जात रहीं । बाकिर एक बार ओह कुल्हि सवालन के जोड़ एह तरी कबड़ल रहे कि हमार गोड़ अपने-आप मुड़ि के फिर ओही खोपड़ी का लगे चलि गइल रहे । खोंपड़ी रेती पर ओसहीं-के-ओसहीं पड़ल रहे । ओकरा लगे जाके हम फिर बइठि गइल रहीं ।

पहिले वाला लकड़ी ओह खोपड़ी के बगले में पड़ल रहे । हम ओह लकड़ी के उठा लिहले रहीं आ ओकरे से ओह खोपड़ी के फिर से उलटि-पलटि के अपना सामने खाड़ सवालन के जबाब खोजे लागल रहीं । बाकिर हर दफा हमरा हाथ में फुक्का लागल रहे । हमरा लाख चाहला के बादो, हमरा ई ना बुझाइल रहे कि खोपड़ी कउना जाति के ह ? अगड़ा के ह कि पिछड़ा के ह ? हिन्दू के ह कि मुसलमान के ह ? उलुटे हर दफा हमरा ई बुझाइल रहे कि खोंपड़ी हमरा के कउँचा रहल बा । तब हम पितपिता गइल रहीं आ खींझ में आ के ओह खोपड़ी के एगो आँख में लकड़ी घुसेड़ दिहले रहीं । लकड़ी ओह खोपड़ी के आँख में घुसि के फैसि गइल रहे । जउना के चलते अब लकड़ी के खिंचला पर ओकरा संगे-संगे खोंपड़ियो खिंचाय लागल रहे ।

‘अच्छा । अब एह खोपडी के नदी के जल में परवह क देवे के चाहीं ।’ -हमरा मन में ई बात अचके उठल रहे । तब हम ओह खोपड़ी के लकड़ी के सहारे टांग लिहले रहीं । फिर ओकरा के नदी के जल में परवह करे खातिर चलि दिहले रहीं । बाकिर हम पानी का लगे जसहीं पहुँचे-पहुँचे भइल रहीं कि हमार मन बदल गइल रहे । अब हम ओह खोपड़ी के गाँव में ले जाय के मन बना लिहले रहीं । संगे-संगे हम इहो सोच लिहले रहीं कि गाँव में ले जा के हम ओह खोपड़ी के तेलिया मशान के खोंपड़ी घोषित क देहबि । अइसन क के हम गाँव के लोगन के छकावल चाहत रहीं । असल में हमरा एह विचार के पीछे हमरा गाँव में आवे वाला एगो मदारी रहे । ओह मदारी के पाले तेलिया मसान के एगो खोंपड़ी रहे । मदारी ओही खोपड़ी के प्रताप से किसिम-किसिम के करतब देखावे में माहिर हो गइल रहे । खैर, एही विचार का साथे हमार गोड़ अपने-आप गाँव का ओरि घूमि गइल रहे । ओह घड़ी साँझ आकाश से उतरि के फेंड़न पर सुसता चुकल रहे आ अब भुइयाँ में उतरि के लोट-पोट करे के तइयारी में रहे । कुबेर त होइए चुकल रहे, एह से हमहूँ दुलकिये पर घर का ओरि बढ़े लागल रहीं।

बाकिर खोपड़ी के घरे ले गइल ठीक नइखे ।’ -घर का पिछुआरी पहुँचि के हम सोचले रहीं । फिर त एह बिचार के उठते हमार गोड़ ठमकि गइल रहे । तब हम उहवें खाड़ हो के एह दिसाईं आगे बिचार कइले रहीं। खोंपड़ी के देखते बाबूजी के आँख तड़ेरल आ माई के हल्ला कइल हमरा साफ लउके लागल रहे । बलुक बिना नहवइले माई हमरा के आँगन में टपे दिहें, हमरा एहू बात के शक भ गइल रहे । तब हम ओह खोपड़ी के घरे ले जाय के बिचार छोड़ दिहलें रहीं आ ओकरा के एगो बाँस के कोठ मे छिपा के राखि दिहले रहीं । ओह खोपड़ी के खैर सबेरे पूछे के ख्याल मन में लिहले हम गवें-गवें आहत-थाहत दुअरा पर गइल रहीं । बाबूजी ओह घरी गाय दूहत रहीं । हमार आहट पावते उहाँ का आपन मुड़ी घुमा के हमरा टोकले रहीं -‘कौलेज के पढ़ाई एही तरी पार लागी हो ?’

हम कुछ बोलले ना रहीं । बलुक चुपचाप सरसराइल हम आँगन में चलि गइल रहीं । माई ओह घड़ी रसोई घर में रही । आँगन एकदम सुनसान रहे । हम आँगन में जा के पहिले हाथ-गोड़ धोवले रहीं । कुल्ला-कल्लाली कइले रहीं फिर चुरुआ में जल लेके हम आपन सउँसे शरीर पर छिड़कले रहीं । तब हम दुआर पर आ गइल रहीं आ ललटेन ले के चुपचाप पढ़े खातिर बइठि गइल रहीं । बाबू जी ओही घड़ी गाय दूहि के उठल रहीं । उहाँ का हाथ में दूध के बाल्टी टंगले आ हमरा पर एक नजर डालत घरे चलि गइल रहीं । एह बीचे हमार आँख किताब पर गड़ल रहे । बाकिर हमार मन पढ़े में इचिको ना लागत रहे । हमरा माथा में त अबहीं तकले उहे खोपड़ी चक्कर काटत रहे । हमरा उहे खोपडी के फोटो किताब के एक-एक अच्छर में लउकत रहे, जेकरा चलते हमार माथा अब भारी भइल आवत रहे । हमार मन अब फीका-फीका भइल आवत रहे ।

ई सोचि के हमार मन अउरी थहल गइल रहे कि जउना खोपड़ी के आज सजावल-सँवारल जात बा, तेल-फुलेल-स्नो-पाउडर लगावल जात बा, उहे खोंपड़ी एक दिन जेने-तेने ढिलमिलाइल फिरी । जिनगी के इहे साँच, ओह घरी, हमरा मन के जइसे तूड़ि दिहले रहे आ तब जिनगी हमरा झुठ के एगो मोटरी लागे लागल रहे । ओह घड़ी, हमरा इहो बुझाइल रहे कि जिनगी में हाय-हाय कइल, जाल-फरेब रचल, भा छल-कपट घृणा-द्वेष राखल सचहूँ पाप बा ।

‘अइसे त हम सनक जाइब !’ -अचके हम चिहुँकल रहीं । फिर अपना माथा के दू-तीन बार जोर से झटका दिहले रहीं । बाकिर तबहूँ हमार माथा हलुक ना भइल रहे । तब हम उठि के ओसरा से नीचे सहन में उतरि गइल रहीं । दू घड़ी अन्हरिया अब बीते-बीते भइल रहे आ गाँव का ऊपरी अँजोरिया मोहिया चुकल रहे । हम अबहीं सहन में उतरि के टहले खातिर मन बनावते रहीं कि उत्तर दिशा से हमरा रऊफ मियाँ के आवाज सुनाई पड़ल रहे । रऊफ मियाँ के घर हमरा घर से तीने घर के बाद बा । एह से उनुकर बोली हमरा साफ-साफ सुनाई पड़त रहे । केहू के जोर-जोर से गरियावत रहलें । एह से ई बात साफ साबित होत रहे कि उनुका के केहू चिढ़ा दिहले बा । अरे केहू चिढ़वले का होई, खाली उनुका दुआर का सोझा से गुजरत खानी बोका के बोली बोलि दिहले होई । रऊफ मियाँ खातिर ओतने काफी बा । ओतने पर त शुरुवे हो जाले । फिर त उनुकर रिकार्ड घंटों बाजते रहि जाला । ओह बीचे तउन-तउन गारी पढ़ेले, जउन ना केहू सुनले रहेला, ना सोचले रहेला । बाकिर उनुकर गारी के कबहूँ केहू अमनख ना मानेला । बलुक सभे अउरी लुफ्ते लेवेला । का हिन्दू का मुसलमान सभे के एक तरह से खेलवना बाड़े रऊफ मियाँ ।

‘लागत बा कि रऊफ मियाँ के केहू चिढ़ा दिहले बा !’ -पीछा से बाबू जी के ई आवाज हमरा कान में पड़ल रहे । तब हम पलटि के पीछा तकले रहीं । बाबूजी खाना खा के दाँत खोदत आँगन से निकसलि रहीं फिर उहाँ का ओसरा में बिछावल चउकी पर बइठत-बइठत आगे कहले रहीं -‘भला बूढ-पुरनिया के एह तरी चिढ़ावे के चाहीं ? हुँ ! कइसन-कइसन खोपड़ी वाला लोग बाड़े एह गाँव में ?’

बाबूजी के बात पर हम कुछ बोलल ना रहीं । बाकिर उहाँ के बात हमरो अँचल रहे । रऊफ मियाँ अस बूढ़-ठूढ़ के एह तरी चिढ़ावल हमरो नीक ना लागल रहे बाकिर एह गाँव के आदमी सब के का कहल जाव ? इहवाँ त एक-से-एक खुराफाती खोंपड़ी वाला लोग बाड़े । इहवाँ अइसनो लोग बाडे जेकरा खोंपड़ी में खाली भूसे भरल बा आ अइसनो लोग बाड़े जेकरा खोपड़ी में अइसन-अइसन पेंच बाटे, जिन्हनी के सझुरावे खातिर बड़-बड़ खोपड़ी वाला आदमी के फेने-फेन हो जाय के पड़ेला ।

‘ए बबुआ ! आवs खा ल हो !’ घरे से माई हमरा के ओही घड़ी खाय खातिर पुकरले रही । तब हम सहन में से ओसारा में आ गइल रहीं। फिर चउकी पर छितराइल आपन किताब-कॉपी के हम समेटि के राखि दिहले रहीं। किताब कॉपी रखला के बाद हम ललटेन उठा के खुंटी में टांगि दिहले रहीं आ तब हम खाये खातिर आंगन में चलि गइल रहीं ।

खाना खाते-खात हमरा एक बेर फिर घर का पिछुआरी बँसवारी में छिपा के राखल खोपड़ी के इयाद हो आइल रहे । तब हम ओह खोपड़ी के लेके आगे के योजना पर बिचार करे लागल रहीं । ओही बीचे हमरा माथा में एगो नया बिचार अँखुआइल रहे । फिर त देखते-देखत बिचार एगो लमहर फेड़ हो गइल रहे आ ओही लगले फेड़ फले-फूले लदि गइल रहे । साँचो, ओह घड़ी हमरा मन में खूब गुदगुदी उठल रहे आ हम अपने आप मुसका दिहले रहीं।

जेह घड़ी खाना खा के हम उठल रहीं, अपना सँगे उहे फेंड़ ले के उठल रहीं । ओह घड़ी माई रसोई घर में दूध अँवटत रही । आँगन में हमरा अलावे अउरी केहू ना रहे । अइसन मौका देखि के हम झटके पर आपन मुँह हाथ धो के पूजा घर में चलि गइल रहीं । पूजा घर में जा के हम झटके पर एगो पुड़िया में रोड़ी, एगो पुड़िया में अक्षत आ एगो पुड़िया में धूप लिहले रहीं । फिर ओह पुड़ियन के आपन कुर्ता के जेबी में राखि के हम दुअरा पर आ गइल रहीं।

दुअरा पर बाबूजी तब तकले आपन चउकी पर बिछावन लंगा के लेटि चुकल रहीं । ओह से पहिले उहाँ का गाय-बैलन के नाद पर से उतारि दिहले रहीं आ दुअरा पर एक बाल्टी पानी आ एगो लोटा राखि दिहले रहीं रऊफ मियाँ के बोलियो ओह घड़ी ना सुनात रहे । ऊहो थाकि-थूकि के तब तकले शांत हो चुकल रहलें ।

दुअरा पर आ के हमहूँ सबसे पहिले आपन चउकी पर बिछावन लगवले रहीं। फिर ताखा पर से माचिस उठा के आपन कुर्ता के जेबी में डालि लिहले रहीं । तब हम खूटी में टाँगल ललटेन के बुझा दिहले रहीं । ललटेन बुझवला के बाद हम एगो गोइँठा ले आ के ओकरा पर ललटेन में से थोडिका सा किरासन तेल गिरा लिहले रहीं । फिर ओह गोइँठा के आपन चउकी का नीचे राखि के हमहूँ लेटि गइल रहीं।

बिछावन पर लेटि के हम आपन आँख बन्द क लिहले रहीं । शुरू में हमार मन थथमला अस बुझाइल रहे । बाकिर थोड़िके देरि के बाद जेने-तेने पँवरे लागल रहे । ओह बीचे हमरा मन में कबो गुदगुदी उठे लागल रहे, कबो डर समा जात रहे । कबो हमार होठ पर मुसकी दउड़े लागत रहे, कबो हमार सउँसे देहि के रोवाँ खाड़ हो जात रहे । माने एक तरह से ऊखी-बीखी लेसि दिहले रहे हमरा, जेकरा चलते हम कबो एह करवट हो जात रहीं, कबो ओह करवट कबो चित्त हो जात एहीं, कबो पेटकुनिये । एही तरी आधा रात हो गइल रहे । तब हम अनसा गइल रहीं आ उठि के बइठि गइल रहीं । बाबूजी ओह घड़ी फोंफ काटत रहीं । उहाँ के नाक जोर-जोर से बाजत रहे । मौका अच्छा रहे । एह से हम चउकी पर से गवें उतरि गइल रहीं । फिर चउकी का नीचे राखल गोइँठा के हम उठा लिहले रहीं । तेकरा बाद हम एक लोटा पानी लिहले रहीं आ गवें-गवें, पाँव बँतले ओसरा में से हम सहन में उतरि गइल रहीं।

ओह घड़ी चानी पर चढ़ल चान ठठा के हँसत रहे । पहिले त हमार चोर मन ओतना अँजोर सहे में धुकमुकाइल रहे । बाकिर माथा के बेरि-बेरि हुडपेठला पर तइहार हो गइल रहे । फिर त हम दस मिनट में लक्ष्य भेदन करि के फिर दुअरा पर लवटिये आइल रहीं ।

दुअरा पर लवटि के सबसे पहिले हम माटी से हाथ मंजले रहीं । एक बार, दू-बार, तीन बार । फिर हम गोड़ धोवले रहीं, कुल्ला कइले रहीं । तेकरा बाद आपन बाहर-भीतर के शुद्धि खातिर हम चुरूआ में जल ले के मंत्र बुदबुदाइल रहीं -‘ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । य: स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ।।’ फिर मंत्रोपचारित जल के हम आपन देहि पर छिड़कि के सूते खातिर बिछावन पर चलि गइल रहीं ।

ओह घड़ी हमार माथा हलुक लागत रहे । बाकिर हमार आँख अलसाइल रहे आ हमार मन थाकल-थाकल लागत रहे । एह से हम चुपचाप अब आँख मूंदि के सूति जाय के मन बना लिहले रहीं।

ओकरा बाद ना जाने कब हमार आँख लागि गइल रहे आ हम एगो डरावन सपना देखे लागल रहीं । ओह घड़ी हम देखले रही कि जउना खोपड़ी के हम रेती पर से ले आइल रहीं, उहे खोपड़ी अचके आ के हमार छाती पर सवार हो गइल रहे । फिर देखते-देखत खोपड़ी बिला गइल रहे आ ओकरा जगहा पर रऊफ मियाँ प्रगट हो गइल रहलें । रऊफ मियाँ के आँख से ओह घरी खून टपकत रहे आ उनुकर दूनों हाथ हमार गरदन टीपे खातिर बढ़ल आवत रहे । साँचो, ओह घड़ी हम बहुते डरि गइल रहीं आ मदद खातिर जोर-जोर से चिल्लाय लागल रहीं ।

तलुक ओही घड़ी माई हमरा के झकझोरि के जगा दिहले रही -‘बबुआ ! बबुआ !! बउआत बाड़ का हो ?’

तब हम अकचका के जागि गइल रहीं आ उठि के बइठहीं के चाहत रहीं तलुक माई हड़बड़ाइले फिर कहले रहीं -‘उठऽ, देखऽ रऊफ मियाँ के दुआर पर साइत झगड़ा हो गइल बा ।’

अतना सुनते हम चिहुँकि के बइठि गइल रहीं । फिर आपन लुंगी सम्हारत हम झटके पर ओसारा में से सहन में उतरि गइल रहीं। किरिन अबहीं अबगे फूटल रहे आ सूरज के मुँह ओह घड़ी खीसी लाल भइल आवत रहे । ओने रऊफ मियाँ के दुआर पर से ओही घड़ी ‘अल्ला हो अकबर’ के तुमुल नाद सुनाइल रहे । तेकरा पीठ पर ‘महाबीर स्वामी की जय’ के जय-घोष लगले-लागल दू-तीन बेर सुनाइल रहे । फिर त ई कुल्हि सुनि के हमरा जइसे कठेया मारि दिहले रहे आ हमार गोड़ उहवें के उहवें थथमि गइल रहे । ओही घड़ी बाबू जी रऊफ मियाँ के दुआर का ओरि से हाँहें-फाँफे आइल रहीं आ आवते उहाँ का हमरा के बरजि दिहले रहीं -‘ओने मति जइहs, ओने दंगा हो गइल बा ।’

माई ओह घड़ी दुअरा पर ओसारा में खाड़ रही । बाबूजी के बात सुनते चिहा के पूछले रही -‘कइसन दंगा ए दादा !

बाबूजी तब तकले चउकी पर बइठि चुकल रहीं । उहाँ का आपन गमछा से मुँह पोछत बड़ा दुखित हो के कहले रहीं -‘का कहीं कइसन दंगा ? अरे, राते कउनों बदमाश रऊफ मियाँ के दुआरी पर एगो खोपड़ी राखि के पूजा क दिहले रहे…. बिहान भइला रऊफ मियाँ उठले त, लगले गाँव भर के हिन्दू के गरियावे….. ओही घड़ी संयोग से राम प्यारे भाई पैखाना जात रहलें….. रऊफ मियाँ के टोकि दिहले कि मय हिन्दू के काहें गरियावत बाड़ऽ ? -जे अइसन नीच काम कइले बा, ओकरे के गरियावऽ…. एही पर रऊफ मियाँ उनका से अझुरा गइलें आ बाते-बात में उनुका पर बधना चला दिहले…. एही पर त बात बढ़िये गइल ह….. फिर गवें-गवें दूनों गोल के जुटान हो गइल ह आ हो गइल ह कसि के मार…… अब पता ना आगे अउरी का-का होई ?’

‘आई हो दादा?’ -माई ई कुल्हि बात सुनि के आपन छाती पीटि लिहले रही -‘कउन पापी खोंपड़ा-खोंपड़ी ले आ के अइसन कुकरम क दिहलसि ए दादा !’

बाबू जी एह पर छुटते कहले रहीं -‘जब इहे पता रहित कि अइसन कुकरम के कइले बा, तब सबसे पहिले ओकरे खोपड़ी के ना फोड़ि दिहल जाइत ।’

साँचो, बाबू जी के ई बात हमरा धक् से लागल रहे । ओह घड़ी हमार एक मन अइसनो भइल रहे कि चलि के बाबूजी के आगा हम आपन खोपड़ी राखि दिहीं बाकिर का कहीं, ओह घड़ी हमरा हिम्मते ना नू भइल रहे ?

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