भोजपुरी लोक संस्कृति

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भोजपुरी लोक संस्कृति का क्षेत्र विस्तृत है – बिहार में सारन (छपरा), सीवान, गोपालगंज , भोजपुर (आरा), रोहतास (सासाराम), पूर्वी चंपारण (मोतिहारी), पश्चिम चंपारण (बेतिया), झारखण्ड में डालटेनगंज, पलामू, गढ़वा, रांची और जमशेदपुर के कुछ हिस्से एवं उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर, वाराणसी, गाजीपुर, आजमगढ, मउ नाथ भंजन, महाराज गंज, देवरिया, बस्ती, सिद्धार्थनगर तक इसका प्रभाव है। इसके अतिरिक्त नेपाल की तराई, जशपुर रियासत से लेके विदेशों में मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, ब्रिटिश गुआना, युगांडा आदि में भी भोजपुरी समाज अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखे हुए है। भोजपुरी आँचल के जीवन व्यवहार में प्रचालित परम्पराएं और सांस्कृतिक आचार विचार भारत के दुसरे क्षेत्रों में भी कुछ परिवर्तनों के साथ मौजूद हैं यह विशेष रूप से गौरतलब है कि भोजपुरी अन्चल की लोक परम्पराएं एक आर्थ में शुद्ध समाज-शास्त्रीय हैं और इनका कहीं ना कहीं व्यावहारिक आधार है।
भोजपुरी लोक संस्कृति के विविध पक्षों को इन बिंदुओं के अंतर्गत प्रस्तुत किया जा सकता है जैसे – परिधान व आभूषण; बालों का श्रृंगार, मनोरंजन के साधन, खेलों में लोक परंपरा, तीज-त्यौहार, लोक-कलाएं, वास्तुकला, मूर्तिकला, भोजन, चित्रकला, काव्य और संगीत, लोक नाटय, सामाजिक व्यवस्था, धर्म, पारिवारिक संरचना, संस्कार, आवास, आर्थिक जीवन, लोक विश्वास, जीवन मूल्य एवं राजनीति।

भोजपुरी लोक संस्कृति

परिधान

भोजपुरी क्षेत्र में विवाह में सिर पर पगड़ी बांधते हैं जिसे साफा कहा जाता है, रेशम की पतली महीन पगड़ी मुरेठा कहलाता है युवा वर्ग सफ़ेद मलमल की टोपी दुपलिया पहनता है, शीत से बचने के लिए कनटोप पहना जाता है और गले में एक गमछा–गमछी रखने की भी परंपरा है। गरीब लोग सूती कुरता जिसे मोटिया कहा जाता है पहिनते है जिसमे बटन के जगह मुद्धी लगा रहता है। बुजुर्ग लोग सरसों के तेल में या रेडी (अरंडी) के तेल से पोंछा चमरौधा जुत्ता (पनही) पह्नते हैं, धोती, कुरता, मिरजई, पायताबा, सलेमशाही आदि शादी के समय प्रयोग में लाते हैं।

विवाह में पीले रंग का बड़ा महत्व है औरते पियरी (पीले रंग) के शादी या तीज त्यौहार, पूजा पाठ के समय पहनती हैं। स्त्रियाँ सिर पर ओढ़नी, झुला, कुरती, चोली, लुगा. पहनती हैं गरीब स्त्रियाँ लूगा, लूगरी , सटुआ, और खारपा, चट्टी, चटाकी या चप्पल पहनती हैं। बच्चे मगही, बड़े बच्चे घुटन्ना, और छोटे बच्चे गांती (मोटे कपडे के) बांधते हैं।

भोजपुरी समाज में आभूषण ओ स्त्रीधन समझा जाता है औरते पायल, बिछुआ, चुर्री पैजना, तोडा सादा, तोडा गुच्छ्या, चुल्ला, घुंसी, घुन्सि चंदक, करघौ, बकुरिया, हंसुली, गजरा, कोचिया, कंगन, चुरमनि, बुलाकी, कंठी, नथनी, पैरी, बाजूबंद, कमर पेटी, परोसन, गुलुबन्द, तडीया, अंगुठा, चुरा ऐंठी, टिकली, मटरमाला, बेंदी, हाय, चूरा, चूरिया, कनफूल. जीउतिया, झूमर, बलि, कुंडल पैजनिया, गुजऋ, छल्ला- छल्ली, नागौरी, बेल-चूड़ी और हार पहनती हैं।

भोजपुरी क्षेत्र में स्त्रियों के प्रसाधन में बालों के श्रृंगार का महत्व हैं, बाल झाड़ने के लिए ककही, ककहा, ककरी का प्रयोग करती हैं और चोटी में बुकवा लगाने की प्रथा है वही विवाहित स्तिर्याँ टिकुली, रोरी, इंगुर लगाती हैं वही नट स्त्रिया गोदना गोदती है जो आजकल महानगरों में टेटू (tatoo) कहलाता हैं जिसे आधुनिक लोग बड़े गर्व से लगते हैं।

मनोंरजन

देश के भोजपुरी क्षेत्रों में जो सहजता एवं सरलता देखी जाती है चाहे वह लोगों के बीच हो या प्रकृति के बीच, सबके आधार में वहाँ के लोक पर्वों का बहुत बड़ा योगदान है। इन क्षेत्रों क लोक पर्वों ने वहाँ की संस्कृति एवं कला को जो जीवन्तता दी है वह अद्भुत एवं दर्लभ है। समाज में स्नेह एवं भाईचारा को विकसित एवं सुदृढ़ करने वाले लोकपर्वों की स्थिति एक समय बहुत सुखद थी। पुष्क एवं नीरस वातावरण में सावन की फुहार की तरह अपना प्रभाव छोड़ने वाले विभिन्न लोकपर्वों ने बड़े हर्षमय बनाया है और सम्बन्धों में मधुरता एवं प्रेम घोलने में भी सफल रहे हैं। हृदय में धार्मिक भावनाओं के साथ उल्लास एवं उमंग का संचार भी किया है। ठीक इसी तरह भोजपुरी क्षेत्रों में लोग उत्साही वातावरण में रहना पसंद करते हैं। इसके लिए समय-समय पर समय के रंगों को भरते हुए बहुत से उपादान हैं जिनमें लोकनृत्य भी है।

उन लोकनृत्यों में प्रमुखता से जीवन का प्रभावित करने वाले कुछ लोक नृत्य निम्नांकित हैं –

फरी नृत्य: फरी के नाच – यह नृत्य मुख्य रूप से यादव समाज में अधिक प्रचलित है। इसमें लोहे के फाल वाद्य यंत्र के रूप में बजाये जाते हैं। एक जोड़ी फाल को हाथ में इस तरह पकड़ा जाता है मानो चिमटा हो और इसी की ताल पर वीररस के लोकगीत नाच-नाच कर गाये जाते हैं। बीच-बीच में युवक कलाबाजियों के कई करबत दिखाकर दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। इसमें नर्तक दलों के समूह 5 से 10 तक होता है। गायन बिरहा शैली में किया जाता है। इसमें एक गीत है –
“देहिया के लोहवा बनाई ल ए बाबू मोर…
दुश्मन के छाती चढ़ी जाव….
सँसरी में फँसरी लगा के तोहरी डरे मरे…
तोहरा से पार ना ही पाव…
तोहरा से पार नाही पाय दुश्मनवा
तोहरा से पार नाही पाय।”

घाँटो अथवा जट-जटीन नृत्य – सावन भादो के जब कृषि कार्य समाप्ति पर रहता है तो गाँवों में जट जटीन का नाच होता है जिसमें एक पात्र जट और दूसरा जटीन बनते हैं और फिर ढोल-झाल की थाप पर गाया जाता है
जटीन: दूरे देशवा जइहें रे जटवा
नथिया लेके अइहें रे …
मोरी बारी उमीरिया रे जटवा
नथिया पहीरी नचबो रे।
जट: दूरे देश जइब जटीनिया
नथिया लेके लअइबे रे
तोरी बारी उमिरिया जटीनिया
नथिया तोहे पेन्हइबे रे ….।

पँवारा नृत्य यानि पंवरिया का नाच – लोक नृत्य में इसका अपना विशेष महत्व है। बच्चे के जन्म लेने पर विशेष कर पुत्र के जनमने पर प्रस्तुत होने वाला नृत्य है। इसमें मुख्य नर्तक कुर्ता घाँघरा पहनता है। माथे पर एक मुरेठा बाँधता है जिसमें कलगी की तरह एक मोर का पंख लगा लेता है। मुख्य नर्तक के हाथ में एक छोटी सांरगी होती हैं और पैर में पायल। साथ में एक ढोल बजानेवाला तथा एक मजीरा बजाने वाला कलाकार रहता है। पुत्र होने की खुशी में ये द्वार पर पहुँचते हैं, नाचते हैं, गाते हैं – खास कर बधाई गीत सोहर आदि। बदले में भारी इनाम बख्शीष मिलता है। इसमें गाया जाने वाला गीत है
“राजा दरबार आ गइनी
राजा दरबार आ गइनी।
हीरा चाहीं मोती चाहीं
सोना चानी पा गइनी।
लुगा माँगब लुगरिया माँगब
एजी …. हाँ हाँ एजी उहो पा गइनी
राजा दरबार आ गइनी।
गइया मागँब बछरूआ माँगब
एजी हाँ हाँ एजी उहो पा गइनी…..
राजा दरबार आ गइनी।”

हुरका नृत्य या हुरका के नाच – इसमें नर्तक छाती से लेकर पैर तक एक विशेष प्रकार का घाँघरा पहनता है। घाँघरा के नीचे कमीज और पाजामा रहता है। एक कलाकार हाथ में हुरका, डमरू की तरह का बना बीच में थोडा लम्बे झोंक वाला वाद्य यंत्र होता है जिसे हुरका कहते हैं, उसे बजाता है। साथ में एक मृदंग बजाने वाला तथा दो झाल बजाने वाले होते हैं जो खुशी के अवसर पर चाहे जन्मदिन हो या धार्मिक अवसर, कोई मन्नत पूरा होने की खुशी हो, यह नाच होता है। जब नर्तक का घाँघरा और उसका चक्कर दोनों ही बड़े लुभावने लगते हैं। इसमें सोहर भजन या देवी गीत पचरा का गायन हो सकता है। जैसे –
“कहवां के देवी हऊ बोल ऽ महारानी हे मइया
तनी होख ना सहइया हे मइया।”

डफरा नृत्य या डफरा बँसूली के नाच – एक समय था जब बड़ी-बड़ी बैन्ड पार्टियाँ नहीं थी तब भोजपुरी क्षेत्रों में डफरा बँसूरी का नाच बड़ा मशहूर था। इसमें चार कलाकार होते हैं जिसमें एक डफली बजाता है, दो कलाकार बाँसुरी फूँकते हैं और एक खंजड़ी बजाता है। चारों मिल कर नाचते-गाते और बजाते हैं। कभी यह नाच शादी-ब्याहों में बड़ा लोकप्रिय था। इसमें गायन की विशेषता नहीं होती है। गीत बाँसुरी से ही निकलते हैं जो पारम्परिक लोक गीत होते हैं।

ठकरा नृत्य: डकरा का नाच भोजपुरिया क्षेत्रो में आज भी गाँवों में कहीं-कहीं ठकरा के नाच का प्रचलन है, यद्यपि यह अब धीरे-धीरे विलुप्त हो रहा है। सावन-भादो के महीने में फसल बोआई के बाद फुरसत के क्षणों में गाये जाने वाले इस नृत्य में डांडिया की तरह का नाच होता है किन्तु इसमें वीर रस और भक्ति रस के गीत गाये जाते हैं। 10 से 20 पुरुषों की मंडली इस नृत्य को रूप रंग देती है।
सावन के अंजोरी नाग पंचमी से लेकर पूर्णिमा तक यह नृत्य चलता है। इस नृत्य में गाये जानेवाला एक वीर रस का गीत है
जब हनुमत जी कसे लंगोटा
लक्षुमन जंघा चढ़ाई हो रामा….।
ठकरा नृत्य प्रायः चैपाल में गाया जाता है। जो मन में रस का संचार करता है।

बिहुला नृत्य या बिहुला का नाच – आश्विन माह से आधा कार्तिक माह के बीच गाँवों में प्रस्तुत होने वाला यह नृत्य दुखान्तक होता है। बिहुला जो एक लोक पात्र यानी एक सती स्त्री थी। उसके पति को साँप ने डस लिया था। उस मृतक पति की बिहुला नागराज की पूजा-याचना करके जीवित कराने में सफल रही। बीच-बीच में एक जादूगर किस्म का पात्र होता है जो कुछ जादू भी दिखाता है। इस नृत्य के साथ गाये जाने वाले एक गीत का बोल है –
“मरलो पीअरज में जान ऽ लउउटाई द ह नागराज
हमरो सेनुरा बचाई ल हो नागराज।”

विदेशिया नृत्य – भोजपुरी क्षेत्रों मे भिखारी ठाकुर की परम्परा का यह लोक नृत्य आज भी गाँवों में शादी ब्याह के अवसर पर लोकप्रिय है। इसमें काम करने वाले सारे पात्र पुरुष होते हैं। इनकी संख्या 10 से 20 तक होती है। जिसमे 4 या 5 नर्तक बनते हैं जिन्हें लउंडा कहा जाता है। 3 से 4 पात्र होते हैं अर्थात् नाटक में विभिन्न चरित्र को निभाने वाले पात्र होते हैं। एक मुख्य व्यास गायक होता है जो नाच का मुख्य हारमोनियम वादक और डायरेक्टर दोनों होता है। एक नगाड़ा बजाने वाला, एक ढोल बजाने वाला और एक बैंजू बजाने वाला होता है। रात रात भर तक चलने वाला यह नृत्य आज भी बहुत लोकप्रिय है, किन्तु अब धीरे-धीरे यह भी विलुप्त हो रहा है क्योंकि इसका स्थान आरकेस्ट्रा बजाने वाले ले रहे हैं जहाँ भद्दे व अश्लील नृत्यों की भरमार होती है। इसमें दहेज प्रथा, बाल विवाह, धार्मिक और वीर रस से भरे नाटक खेले जाते हैं जिसमें दही वाली, पुतली बाई, बुढ़वा भतार आदि लोक नाटक नृत्य के साथ खेले जाते हैं।

झमटा नृत्य – थारू जाति के बीच लोकप्रिय यह नृत्य आदिवासियों का एक प्रमुख नृत्य है। जिसमें पुरुष और महिलाएँ दोनों नाच-नाच कर खुशी व्यक्त करते हैं। फसल कटाई के बाद होने वाले नृत्य थारु समाज की कला संस्कृति को भी दर्शाता है। चम्पारण और नेपाल की तराई में बसे थारू जनजाति के लोग इस नृत्य को करते हैं। इसमें का एक गीत है
“गेना ऊपर गेना फुदेना
गेना ऊपर गीरेला।”

डोमकच – बारात जाने के बाद दूल्हा पक्ष की महिलाएँ सोने के बदले जागना पसन्द करती हैं। कुछ फुरसत भी रहती है। उन फुरसत के क्षणों में अगल-बगल की महिलाएँ दूल्हा पक्ष वाले के घर एकत्रित होती हैं। एक पात्र स्त्री का एक पुरुष का पात्र दोनों ही महिलाएँ निभाती हैं और बच्चे को गोद में लेकर उसके जन्म को लेकर हास-परिहास करते हुए नाचती गाती हैं। उस बच्चे को जलुआ कहा जाता है। यह उल्लास और उमंग का नृत्य है जिसमें महिलाएँ ही ढोल-झाँझ वादन करती हैं। पुरुषों के लिए नृत्यों का देखना वर्जित होता है।

इस तरह उपरोक्त लोकनृत्य जो अपनी विशेष उपयोगिता के बावजूद भी विलिप्त होते जा रहे हैं जबकि ये हमारी लोक-संस्कृति के वाहक और धरोहर हैं। इन्हें नहीं बचाया गया तो आने वाली पीढ़ी इनका नाम तक भूल जायेगी और भूल जायेगी अपनी लोककला संस्कृति को भी।

लेखक – संतोष पटेल
भोजपुरी ज़िन्दगी पत्रिका के संपादक हैं
ईमेल – bhojpurijinigi@gmail.com

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