भोजपुरी लोकगाथाओं में संस्कृति एवं सभ्यता

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भोजपुरी संस्कृति एवं सभ्यता के मूल में प्रधान रूप से वीर प्रवृत्ति निहित है। श्री ग्रियर्सन तथा अन्यान्य विद्वानों ने इसी तथ्य को स्वीकार किया है । ग्रियर्सन ने भोजपुरी भाषा पर विचार करते हुये लिखा है कि, ‘भोजपुरी उस शक्तिशाली, स्फूतपूर्ण और उत्साही जाति की व्यावहारिक भाषा है जो परिस्थिति और समय के अनुकूल अपने को बनाने के लिये सदा प्रस्तुत रहती है और जिसका प्रभाब हिन्दुस्तान के प्रत्येक भाग पर पड़ा है।

अतएव भोजपुरी लोकगाथाओं में भी प्रमुखरूप से वीरत्व की भावना पाई जाती है। भोजपुरी वीरकथात्मक लोकगाथाओं के अतिरिक्त प्रेमकथात्मक, रोमांचकयात्मक तथा योगकथात्मक लोकगाथाशों के अन्तर्गत भी यही वीरप्रवृति दिखलाई पड़ती है। वीरता का अर्थ युद्धवीरता ही नहीं है, अपितु जीबन की प्रत्येक जटिल परिस्थितियों का साहस के साथ सामना करना ही वीरता है। भोजपुरी लोकगाथाओं के प्रत्येक वर्ग के नायक अर्थबा नायिकाएँ इस कथन का समर्थन करती हैं।

भोजपुरी लोकगाथाओं में संस्कृति एवं सभ्यता
भोजपुरी लोकगाथाओं में संस्कृति एवं सभ्यता

भोजपुरी लोकगाथाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि प्रायः समस्त लोकगाथाएं देश की मध्ययुगीन संस्कृति एव सभ्यता से सम्बन्ध रखती हैं। मध्ययुग, क्या राजनीतिक क्षेत्र में अथवा क्या धार्मिक क्षेत्र में, एक महान् उथल-पुथल का समय था। उस समय देश में विदेशियों का वेग के साथ आगमन हुआ । अनेक महान् राज्यों की स्थापना हुई तथा अनेक बड़े राज्य उजड़ गये । जीवन की रक्षा का माध्यम खड्ग ही था । परन्तु इस राजनीतिक अराजकता में भी ग्रामीण जीवन में शान्ति और तारतम्य था। राजा, राजा से लड़ते थे, तथा सेना, सेना से लड़ती थी, प्रदेशों एवं प्रान्तों का निपटारा होता जाता था, परन्तु गांवों का जीवन पुरातन काल से शांति एवं समान रूप से चला आ रहा था। वे राजनीतिक अधीनता चुपचाप स्वीकार कर लेते थे. परन्तु अन्य सभी क्षेत्रों में स्वतंत्र थे। उनकी आन्तरिक चिन्ताधारा में कोई विशेष अन्तर नही आया था। धर्म के प्रति, देवी देवताओं के प्रति, वीरपुरुपों के प्रति उनकी आस्था अटूट थी।

राजनीतिक दृष्टि से शांत रहते हुये भी गांव के जीवन में, धार्मिक विश्वासों में अनेक हेर फेर हुये, परन्तु गांव को धार्मिक जीवन अन्ततः हिन्दू ही था। इस्लाम धर्म ने चाहे कितने वेग से क्यों न पदार्पण किया, परन्तु ग्रामीण जीवन के विश्वासों के सम्मुख वह अकर्मण्य सिद्ध हुआवे ग्रामीण हिन्दू, चाहे वैष्णव थे, चाहे शैव या शक्त अथवा वे नाथधर्म से भी क्यों न प्रभावित रहे हों, परन्तु सभी सिमट कर हिन्दू परिधि में ही संरक्षित थे । एक अद्भुत समन्वय उनके जीवन में थी जो आज भी गांवों में परिलक्षित होता है। इसी समन्यवयी जीवन ने ही कबीर एवं तुलसीदास जैसे महात्माओं को उत्पन्न किया।

भोजपुरी लोकगाथाओं में इसी समन्वयकारी जीवन का मनोरम चित्र उपस्थिति किया गया है। लोकगाथाओं में युद्ध है, जीवन का संघर्ष है, मत मतान्तरों का अन्र्तद्वंद्व है, परन्तु सभी में एक निहित एकात्मता है, सभी में सत्यं, शिव एव सुन्दर का सन्देश है । खल प्रवृत्तियों का कितना भी प्राबल्य उनमें चित्रित किया गया हो, परन्तु अन्त में विजय उसी की होती है जो मानवता के चिरन्तन सत्य और अदर्श को लिए हुए हैं। उस सत्य और उस आदर्श को आधार भारतीय संस्कृति ही है। भारतीय संस्कृति की मल भावना में आध्यात्मिक जीवन को श्रेष्ठता मिली है। यही अध्यात्मिक जीवन इस देश में अनेकानेक धार्मिक रूपों में परिलक्षित हुआ है। धर्म के अनेकानेक रूप होते हुए भी ‘ईश्वर’ अथवा ‘ब्रह्म’ के विषय में मतभेद नहीं है । भोजपुरी लोकगाथाश्रों में इसी एक मूल भावना को लेकर धर्म में प्रगाढ़ आस्था प्रदर्शित की गई है। इसी धर्मध्वजा को लेकर लोकगाथाओं के नायक एवं नायिकायें आगे चलते हैं। वे प्रेमी याचक हैं, परन्तु उनमें मर्यादा की सीमा लांघ जाने की प्रवृत्ति नहीं है । वे दैवी कृपा से युक्त है परन्तु मानवता के सरल जीवन से दूर नहीं है। लोकगाथाओं के चरित्र पाश्चात्य विचारकों के अनुसार ‘प्रिमिटिव कल्चर’ से सम्बन्ध नहीं रखते हैं. अपितु उनको जीवन सुसंस्कृत है। वे एक महान संस्कृति से सम्बन्ध रखते हैं जिसे पुनः गतिशील बनाने के लिए भगवान को भी मनुष्य रूप में जन्म लेना पड़ता है। इसीलिए तो लोकगाथ नायक एवं नायिकायें अवतार के रूप में हमारे सम्मुख आते हैं और ‘परित्राणाय आधुनां विनाशाय च दुष्कृताम्’ का कर्तव्य संपन्न करके पुनः ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं। लोकगाथाओं के नायक समाज में सुव्यबस्था एव सामंजस्य निर्माण करते हैं। सभी धमों को मान्यता देते है, सभी देवी देवताओं की पूजा करते हैं। और इस प्रकार समन्वयकारी जीवन का अनुपम चित्र हमारे सम्मुख उपस्थिति करते है।

भोजपुरी लोकगाथाओं में जिस सामाजिक अवस्था का वर्णन किया गया है, वह एक अत्यन्त सभ्य एव सुसंस्कृत समाज है । चातुर्वण्य अवस्था अपनी चरम सीमा पर है। ब्राह्मण अपने महत्व को रखता है, क्षत्रिय राजकारण एवं युद्ध में कुशल है, वैश्य व्यापार में लगा हुआ है और शूद्रों का जीवन सेवारत है। इसके अतिरिक्त लोकगाथाओं में मानव की स्वाभाविक चित्त प्रवृत्तियाँ, उनका धर्माचरण, उनका सदाचार, उनकी ईष्य एवं कलह के जीवन का स्वाभाविक चित्रण हुआ है ।

भोजपुरी लोकगाथाओं में ब्राह्मण जाति का स्थान अनिवार्य है। इनमें ब्राह्मण जाति का चित्रण कुलपुरोहित के रूप में ही किया है गया। पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा तथा संस्कारों का संचालन करना ही उनका मुख्य कार्य है । वे कहीं शिक्षक अथवा उपदेशक के रूप में नहीं चित्रित किये गये हैं अपितु उनका कार्य है बालक के जन्म पर उसका लक्षण देखना, यात्रा के लिए शुभ साइत देखना, ग्रहदशा का विचार करना, वर-वधू खोजने जाना तथा उनका विवाह कराना इत्यादि । भोजपुरी की दो लोकगाथाओं में ब्राह्मणों की ईष्र्या प्रवृत्ति भी प्रमुख रूप से चित्रित की गई है। सोरठी की लोकगाथा में व्यास पण्डित ईष्र्या वश सोरठी को मार डालना चाहते हैं। इसी प्रकार बिहुला की लोकगाथा में विषहरी ब्राह्मण, खलनायक है जो कि आदर्श पात्रों को अनेकानेक कष्ट देता है। इसके अतिरिक्त शेष सभी लोकगाथाओं में ब्राह्मण पुरोहित के रूप में ही चित्रित हुए हैं।

यह हम पहले ही स्पष्ट कर चुके है कि भोजपुरी संस्कृति में बीरत्व की भावना प्रमुख रूप से वर्तमान है। इस दृष्टि से लोकगाथाओं में क्षत्रियो का जीवन अत्यन्त उदात्त रूप से चित्रित हुआ है । क्षत्रिय का धर्म है राज्य करना, तथा प्रजा की रक्षा करना। अतएव भोजपुरी लोकगाथाओं में क्षत्रिय जाति अत्यन्त प्रतापी एवं लोकरंजनकारी के रूप में वर्णित है । अधिकाँश लोकगाथाओं के नायक क्षत्रिय हैं जैसे बाबू कुंवर सिंह, विजयमल, आल्हा ऊदल, गोपीचन्द तथा भरथरी । इन सभी नायकों का जीवन क्षत्रिय आदर्श से ओतप्रोत है । उनका राज-पाट, सुखवैभव, युद्ध और त्याग, तपस्या, उदारती सभी क्षत्रियत्व के योग्य हुआ है। उन्होंने कभी भी कोई निकृष्ट कर्म नहीं किया है। वे लोकरंजनकारी, प्रजाहितकारी तथा दुष्टों का मानमर्दन करने वाले हैं। ‘लोरिकी’ की लोकगाथा जो अहीर जाति से सम्बन्ध रखती है, उसमें भी क्षत्रिय आदर्श का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। इस लोकगाथा का नायक ‘लोरिक स्वयं को क्षत्रिय ही कहता है। उसके जीवन के समस्त कार्यकलाप क्षत्रिय वीर की भाँति हैं, अतएव उसका क्षत्रिय कहना उपयुक्त है। वस्तुतः भोजपुरी प्रदेश में राजपूत क्षत्रियों की एक बहुत बड़ी आबादी है । मध्यकाल में तथा इसके पूर्व भी इनके वंशधर बड़े प्रतापी व्यक्यिों में थे। इसी कारण भोजपुरी समाज, क्षत्रिय जाति का बहुत आदर करता है । बाबू कुँवरसिंह इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं।

वैश्यों के जीवन का चित्रण ‘शोभानयका बनजारा’ की लोकगाथा में मिलता है। इसमें भोजपुरी समाज के व्यापार-वाणिज्य का सुन्दर उदाहरण उपस्थित किया गया है। शोभानयका इस लोकगाथा का नायक है जो कि सोलह सौ बैलों पर जीरा मिर्च लाद कर मोरंग देश व्यापार के लिए जाता है। व्यापार की उसे इतनी चिन्ता है कि वह प्रथम रात्रि में ही अपनी प्रिय पत्नी को छोड़ कर चल देता है । वैश्यों का धर्म है व्यापार वाणिज्य करना, यह कथन अक्षरशः इस लोकगाथा में लागू हुआ है। परन्तु इसके साथ-साथ भारतीय जीवन का आदर्श भी उसमें उपस्थित हैनायिका दसवन्ती अपने सतीत्व की रक्षा किस प्रकार करती हैं, यह श्रवण करने योग्य है।

प्रायः समस्त भोजपुरी लोकगाथाएँ समाज के निम्नवर्ग में प्रचलित हैं। अतएव शूद्रों और अन्त्यज (हरिजन, चमार, दुसाध) के जीवन का व्यापक चित्रण इनमें मिलता है। सर्व साधारण रूप से प्रत्येक लोकगाथा में शूद्रों के जीवन का चित्र है। अधिकाँश रूप में तो वे सेवा कार्य में ही निरत हैं, परन्तु दो एक लोकगाथाओं में खलनायक के रूप में भी वणित हुये है । लोकगाथाओं में शूद्रों की अनेक जातियों का वर्णन मिलता है जैसे, नाई, कहार, चमार, मल्लाह, धोबी, दुसाध तथा अहीर इत्यादि। यह सभी जातियाँ अपने परंपरागत कर्मों को उचित रूप से करती हैं। परन्तु सबसे उल्लेखनीय बात तो यह है कि लोकगाथाओं का उच्च समाज उन्हें घृणा की दृष्टि से देखता है। यहाँ तक कि लोकगाथाओं के आदर्श नायक एवं नायिका भी उनसे घृणा करती हैं। उदाहरण के लिये लोरिक अपने जन्म के समय में कहता है:-

“सुनबे त सुनब माता कहल रे हमार,
घरवा में घगड़िन (चमारिन) माता लेबू जो बुलाय
हमरो धरमवा ये माता जाई हो नसाये
घर के बहरवे बगड़िन के राखहु बिलमाय”

इसी प्रकार सोरठी भी अपने जन्म के समय कहती है–

‘एक तो चुकवा हमरा से भइल नुरे की
तेही कारण ईन्द्र राजा दिहले सरपवा हो
नर जोइनी होई अवतार नुरे की
जब छुइ दीहें चमइन हमरी शरिरिया हो
हमरो धरमवा चलि जाइ नुरे की,

इस प्रकार से लोकगाथाओं में शूद्रों एवं अंत्यजों के प्रति घृणा एवं हीनता प्रदर्शित करने की परम्परा दिखलाई पड़ती है।

भोजपुरी लोकगाथाओं में सामाजिक संस्कारों का मनोरम चित्रण मिलता है, विशेष करके जन्म एवं विवाह संस्कार का तो विधिवत् वर्णन मिलता है। भारतीय समाज में यह दो संस्कार अत्यन्त महत्व का स्थान रखते हैं। प्रत्येक गृह में बालक जन्म लेता है तो उसे राम, कृष्ण का अवतार ही समझा जाता है । विवाह होता है तो घर की स्त्रियाँ यही गाती हैं कि भगवान राम, सीता से विवाह करने जनकपुर ही जा रहे हैं । भोजपुरी लोकगाथाओं में बाबू कुंवरसिंह की लोकगाथा को छोड़कर सभी में जन्म और विवाह संस्कार अनिवार्य रूप से वर्णित है । अधिकांश लोकगाथाएं तो नायक नायिकाओं के विवाह के पश्चात् समाप्त हो जाती है। नायक और नायिकाओं का जन्म खलप्रवृत्तियों के नाश के लिए होता है। वे अपने उद्देश्य को पूर्ण कर वैवाहिक बंधन में आते हैं और इस प्रकार सुखी जीवन का संदेश देते हैं। इसीलिये भोजपुरी लोकगाथाएं अधिकाँश रूप में मंगलात्मक हैं।

वीर कथात्मक लोकगाथाओं में प्रत्येक नायक वीरता का अवतार है। उसके जन्म लेते ही चारों ओर आशा और विश्वास का वातावरण उत्पन्न हो जाता है । लोक जीवन में आनन्द की लहर उमड़ पड़ती है । उदाहरण के लिए लोरिक के जन्म का वर्णन इस प्रकार है –

“दिन दिन बढ़त गरभवा सवइयाँ होत ये जाय.
छव मास बितले महिनवाँ आठो भइले आए,
नउवां महिनवा रामा चढ़ल अब रे आय,
“आधी रात होखते छत्री जनमवां लिहलस हो आए
जब तो जनमवा रे लिहले लोरिकवा मनि ए आर
सवा हाथ धरतिया ए रामा उहवां उठल हो बाय
महाबली भइल पैदवा गउरवा गुजरात
दीपक समान लोरिकवा महलबा बरत हो बाय”

कुंवर विजयमल की लोकगाथा में और भी उत्साहपूर्ण वर्णन मिलता है–

रामा कुंवर विजई लिहले जनमवां रे ना
रामा गढ़वा बाजेला नगरवा रे ना
रामा दुअरा पर झरे नौबतिया रे ना
रामा लागि गइले दुअरा झमेलवा रे ना
रामा मांगे लगले नेगी आपन नेगवा रे ना
रामा अाइ गइले भांट पवरिया रे ना
रामा गोवे लगले मंगल गीतिया रे ना
रामा देवे लगले राजा बहुदनवा रे ना
रामा अन्नधन लुटावे लगले सोनवा रे ना
रामा खुशी होइ गइले सब घरवा रे ना”

राजा उदयभान को बड़े तप के पश्चात् एक कन्या उत्पन्न हुई । सोरठी के जन्म का वर्णन कितना सुन्दर है—

“आठ तो महिनवा राजा नउ चढ़ि गइले हो
तब भइले सोरठी के जनम नुरे की।
सवा पहर रामा सोना हीरा बरिसे हो
सोनवा के ढेरिया अंगनी में लागल नुरे की

इस प्रकार लोकगाथाशों के नायिकाओ के जन्म के साथ धन-संपदा से सभी लोग भरपूर हो जाते हैं।

भोजपुरी लोकगाथाओं में विवाह का विशद् वर्णन मिलता है । भोजपुरी प्रदेश अथवा यों कहा जाय कि जिस प्रकार उत्तरी भारत में विवाह की प्रथा प्रचलित है, उसी का ब्यौरेवार वर्णन इन लोकगाथाओं में मिलता है। इन लोकगाथाओं में वर देखना, फल्दान चढ़ना, तिलक चढ़ना, और इसके उपरान्त बारात की धूम-धाम से तैयारी करना; कन्यापक्ष की ओर बारात के लिये तथा दहेज का भरपूर प्रबन्ध करना वर्णित है। इसके पश्चात् बारात की अगुवानी, द्वारपूजा, तथा लग्न मंडप में विवाह का विधिवत् वर्णन मिलता है। उदाहरण के लिए शोभानयका बनजारा की लोकगाथा में विवाह का सांगोपांग वर्णन इस प्रकार है

“राम सजे लगले सुघर बरतिया रे ना,
रामा हाथी घोड़ा साजे ले पलकिया रे ना,
रोमा रथ बग्घी साजि लिहले गड़िया रे ना,
रामा रहवा के खेवा से खरचवा रे ना,
रामा लादी लिहले गाड़ी पर समनवा रे ना,
रामा दल फल भइल नगरवा रे ना,
रामा हाथी घोड़ा होई असवारवा रे ना,
रामा पहुँचल बरीयात धूम धामवा रे ना,
रामा नगर में भइल भारी शोरवा रे ना,
रामा बाजे लागल जोर से बजनवा रे ना,
रामा जुटी गइले नगर के लोगवा रे ना,
रामा मिली जुली लेई बरिअतिया रे ना,
रामा जाइके लगले दुअरिया रे ना,
रामा दुअरा पर हो लागल पुजवा रे ना,
रामा भने लगले बेद बभनवा रे ना,
रामा दुअरा के करिके रसमवा रे ना,
रामा टीकल बरियात जनवासवा रे ना,
रामा होखे लागल खातिर समानवा रे ना,
रामा सदियों के भईल जब बेरवा रे ना,
रामा मंडप में गइले दुलहवा रे ना,
रामा हो लीगल विधि से विधानवां रे ना,
रामा भने लगले बेदवा बभनवा रे ना,
रामा होइ गइले कुशल बिअहवा रे ना,
रामा बर कन्या गइले कोहबरवा रे ना,
रामा कोहबर में सखियों सहेलिया रे ना,
रामा करे लगली हंसिया दिलगिया रे ना”

आल्हा के विवाह में बारात की तैयारी ऐसी हो रही है जैसे रणक्षेत्र में सब जा रहे हों।

“चलल परबतिया परबत केलाकर बांध चले तरवार
चलल बंगाली बंगला के लोहन में बड़ चंडाल
चलल मरहट्टा दक्खिन के पक्का नौ नौ मन के गोला खाय
नौ सौ तोप चलल सरकारी मंगनी जोते तेरह हजार
बावन गाडी पथरी लादल तिरपन गाड़ी बरूद
बत्तिस गाड़ी सीसा लद गैल जिन्ह के लगे लदल तरवार
एक रुदेला एक डेबा पर नब्बे लाख असवार”

वीर कथात्मक लोकगाथाओं में बारात की सजधज इसी प्रकार की है। विवाह मंडप में तो युद्ध होना अनिवार्य ही है । शेष सभी लोकगाथाओं में विवाह का शान्ति एवं सौजन्य पूर्ण वर्णन मिलती है।

लोकगाथाओं में दहेज की प्रथा आज से भी बढ़ चढ़ कर चित्रित की गई है । क्या गरीब क्या धनवान सभी भरपूर दहेज देते हैं। परन्तु आज की तरह उस समय किसी क्स्तु की किल्लत न थी । लोकगाथाओं में समाज का प्रत्येक वर्ग सुसंपन्न है, अतएव वह अपनी शक्ति भर धन न्योछावर करता है । लोकगाथाओं में देश के दारिद्र्य का वर्णन कहीं भी नहीं मिलता है। किसी भी वस्तु की कमी किसी के जीवन में नही है। चारो ओर राम राज्य है। गोपीचन्द की लोकगाथा में दहेज का वर्णन कितना भव्य है —

‘तीन सौ नवासी गऊँवा तिलक के चढ़ाई,
बारह सौ घोड़वा देई बहिनी के दहेज,
पाँच सौ हथिया दिहली हॅकवाई,
कहलीं आज बहिनियाँ के दिहले कुनफ़े नाहीं जाई।

सबका बदसहिया बहिनी कपड़ा पहिरॉई
अमीर आ दुखिया के बहिनी एक्के किसमवा कइली
सोने के पिनसिया बहिनी हम त बैठाई
चाँदी के डोलिया बहिनी तोहरे लौंड़िन के भेजवाई।

इन लोकगाथाओं में विवाह के अतिरिक्त कहीं कहीं स्वयंवर प्रथा का भी उल्लेख किया गया है। उदाहरण के लिये सोरठी की लोकगाथा में नायक वृजाभार अनेक राजाओं द्वारा आयोजित स्वयंबर में जाता है और विजय प्राप्त करता है। परन्तु इसमें भी विवाह आदि की प्रथा उपयुक्त वर्णन के समान है।

भोजपुरी लोकगाथाओं में जीवन के भौतिक स्तर का पूर्ण वर्णन मिलता है। लोगों का रहन सहन, श्रृंगार सज्जा एवं भोजन इत्यदि बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग का है। लोकगाथाओं के प्रमुख चरित्र अधिकांश रूप में विशाल महलों, अट्टालिकाओं में निवास करते हैं; सहस्त्रों दास दासियों से घिरे रहते है, सुन्दर से सुन्दर वस्त्र पहनते हैं तथा छप्पन प्रकार के व्यंजनों को भोजन करते हैं। वस्तुतः हमारे देश का लोकजीवन पुरातन काल से समृद्ध रहा है। उत्कृष्ट वस्त्राभूषण तथा उत्कृष्ट भोज्य पदार्थों का वर्णन प्रायः सभी ग्रन्थों में मिलता है। अतएव इन लोकगाथाओं में इनका वर्णन अत्यन्त स्वभाविक है।

सोरठी की लोकगाथा में वृजाभार की स्त्री हेवन्ती के श्रृंगार का वर्णन कितना रोचक है:-

‘एकिया हो रामा हेवन्ती सिंगार करतौ बाड़ी रे नुकी
एकिया हो रामा पहिने पायल पाव जेबवा रेनु की
एकिया हो रामा डंड जोरे दखिन के चीर रेनु की
एकिया हो रामा चोली बंका के पहिन तारी रेनु की
एकिया हो रामा कान में कुंडल नाक में बेसर रेनु की
एकिया हो रामा सोनन के बन्हनिया पेन्हs तारी रेनु की
एकिया हो रामा बांह में बाजूबन्द बांधs तारी रेनु की
एकिया हो रामा नग के जड़ वल अंगूठी पेन्ह तारी रेनु की
एकिया हो रामा सोरहो सिंगार बत्तीसो अभरनकइली रेनु की।

‘अल्हिा’ की लोकगाथा में सोनवां का श्रृंगार कितना भव्य है—

खुलल पेटारा कपड़ा के जिन्ह के रासदेल लगवाय,
पेन्हल घांघरा पच्छिम के मखमल गोट चढ़ाय,
चोलिया पेन्हे मुसरुफ के जेहमें बावन बंद लगाय,
पोरे पोरे अंगुठी पड़ि गेल और सारे चुनरिया के झंझकार,
सोभे नगीना कनगुरिया में जिन्ह के हीरा चमके दाँत,
सात लाख के मंगटीका है लिलार में लेली लगाय,
जूड़ा खुल गइल पीठन पर जैसे लोटे करियवा नाग,
काढ़ दरपनी मुह देखे सोनवाँ मने मन करे गुमान”

इस प्रकार भोजपुरी नायिकायें दक्षिण की चीर और मुसरुफ की चोली ही पहनती हैं। प्रत्येक स्थान पर सोलह श्रृंगार तथा बत्तीसो आभरण का उल्लेख मिलता है। नायिकाओं के प्रमुख आभूषणों, में चंद्रहार, माँगटीका, बाजूबन्द पायजेब, नाक में कील (नकबसर) अंगूठी इत्यादि का वर्णन मिलता है । नायिकाओं के अतिरिक्त नायकों के वेष में पगड़ी, चौबन्दी, धोती, कटार और मस्तक पर तिलक देने का वर्णन मिलता है।

भोजपुरी लोकगाथाओं में छत्तीस अथवा छप्पन प्रकार के व्यंजनों से कम का वर्णन नहीं मिलता है । नैमित्तिक भोजन में किसी प्रकार की कमी नहीं है ।

घी, दूध, दही, मिठाई इत्यादि का तो बाहुल्य है । उदाहरण के लिये शोभानयका बनजारा की लोकगाथा में भोजन का दृश्य कितना रोचक है

*रामा उठि गइले सब बरिअतिया रे ना
रामा भोजन के भईल बिजइयो रे ना
रामा चलि गइले करन भोजनिया रे ना
रामा जाइ बइठे अंगना भितरिया रे ना
राम बनल रहे सुन्दर भोजनवा रे ना
रामा छत्तीस रकम के चटनियाँ रे ना
रामा दही चीनी रबड़ी मलइया रे ना
रामा कहाँ तक करीं हम बड़इया रे ना
रामा करे लगले भोजन बरतिया रे ना”

इसी प्रकार प्रत्येक लोकगाथा में भोजन के वर्णन में छत्तीस या छप्पन व्यंजन का ही वर्णन है । इसके साथ साथ पान तम्बाकू, फ़रशी इत्यादि का भी उल्लेख है–

“रामा रचि रचि सजइहें पान बिरवा रे ना
रामा भरि डिब्बा धरिहें सिरहनवा रे ना।

लोकगाथाओं में अधिकांश रूप में निरामिष भोजन का ही उल्लेख है। मदिरा और मास का केवल दो एक स्थान पर ही उल्लेख हुआ जो कि नगण्य है ।

जीवन का यथार्थ चित्रण :–भोजपुरी लोकगाथाओं में जीवन को सरल एवं स्वाभाविक चित्र उपस्थित किया गया है। इस कारण इसमें स्थान स्थान पर अश्लीलता को भी समावेश हो गया है। लोकगाथाओं में समाज के अच्छे बुरे सभी लोगों का वर्णन किया गया है, अतएव इनमें अश्लील शब्दों एवं संबोधनों का प्रयोग हो जाना स्वाभाविक है । लोकगाथाओं को गायक समाज के गुण दोष को स्पष्ट रूप में सम्मुख रखता है ।

भोजपुरी लोकगाथाओं में कहीं कहीं तो गायक भी गालीगलौज करते हैं । श्रृंगार-रस के वर्णनों ने कहीं कहीं पर अति यथार्थवादी रूप धारण कर लिया है। शोभानयका बनजारों की गाथा में शोभा नायक मनिहारी का वेष बनाकर नायिका दसवन्ती से भेंट करता है और सौदे के मूल्य में चुंबन माँगता है।

इस दृष्टि से देखने से हमें भोजपुरी लोकगाथाओं में भोजपुरी जीवन का आदर्श एवं भव्य चित्र मिलता है।

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