भोजपुरी लोकगीतों में व्यक्त सामाजिक जीवन

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लोकगीतों में ताजे पानी का आनन्द आता है लोकगीत, लोकजीवन की जीती जागती सम्पत्ति है। उनकी गिनती लोकसाहित्य में होती है भोजपुरी लोकगीतों में समाज व्यवस्था, जाति व्यवस्था, परिवार, विविध सम्बन्ध, स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध, स्त्री के विभिन्न रूपों तथा ग्रामीण जनता के उल्लास, दुःख, संघर्ष आदि का चित्रण हुआ है।

भोजपुरी लोकगीतों में ग्रामीणों का सच्चा तथा स्वाभाविक चित्रण उपलब्ध होता है। ग्रामीण कवि ने समाज में जिस समता या विषमता का अनुभव किया है। उसका उसी रूप में चित्रण भी किया हैं। विरहिणी स्त्री का कष्ट,विधवा नारी की असहनीय दुर्दशा, बन्ध्या स्त्री की मनोवेदना, कुलटा का दुश्चरित्र, व्यभिचारी पुरुष की दुष्टता, जुआरी, शराबी पति का चित्रण भोजपुरी गीतों में मिलता हैभोजपुरी समाज में रहन-सहन, संस्कार, रीति-रिवाज तथा भोजपुरी स्त्रियों का उच्च, अटूट पति-प्रेम भोजपुरी समाज की श्रेष्ठता को उजागर करता है।

धर्मशास्त्रों के अनुसार चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का उल्लेख भोजपुरी साहित्य में मिलता है-

ब्राह्मण :-
समाज में ब्राह्मण का महत्वपूर्ण स्थान होता हैब्राह्मण का प्रधान कर्तव्य अध्ययन तथा अध्यापन करना है। प्राचीन काल में काशी संस्कृत विद्या का केन्द्र माना जाता थाइसलिए जने को धारण करने वाला ब्रह्मचारी बरुआ संस्कृत पढ़ने के लिए आज भी काशी आने का अभिनय करता है। कोई स्त्री अपने पुत्र से कहती है कि तुम्हारे पिता तो स्वयं विद्वान् है तुम पढ़ने के लिए काशी क्यों जा रहे हो-

काहे के बेटा जइहउ, कासी अउर बनारस
जिनके बाबा हई पण्डित हो।
आपन वेद पढ़ाई कइ, बाभनु कहले हई हो।।

आरे आरे कासी के पण्डित मोरा घरे अइहें।
पण्डित पोथिया परान लेके, आयसु हमरा बरुआ के जने।।

क्षत्रिय:-

भोजपुरी लोकगीतों में व्यक्त सामाजिक जीवन
भोजपुरी लोकगीतों में व्यक्त सामाजिक जीवन

क्षत्रिय समाज का रक्षक माना जाता है। प्राचीन काल में देश की रक्षा का समस्त भार क्षत्रिय जाति पर होता था। वीरता, तेज, धैर्य, युद्ध में पीछे न हटना, दान देना तथा महानता की भावना उनका स्वाभाविक कार्य है। ‘आल्ह’ खण्ड में आल्हा और ऊदल की वीरता उनके अद्भुत पराक्रम तथा अप्रतिम युद्ध पृथ्वीराज जैसे पराक्रमी वीर के युद्ध में छक्के छुड़ा दिये थे। आल्हा में लिखा है कि

सोलह बरस तक छतरी जीवे, अवऊ जीने को धिक्कारा

वैश्य:-

वैश्य का प्रधान कार्य खेती या व्यापार करना हैपरन्तु आजकल प्रायः प्रत्येक वर्ण के लोग व्यापार करते देखे जाते है, भोजपुरी लोकगीतों में अपनी जीविका चलाने हेतु बाहर जाने का उल्लेख मिलता है-

जो तुहु जइब रावल,पुरुबि बनिजिया हो।
हमरा के का तू ले अइब, रावल मुनिया।।

शूद्र:-

भोजपुरी समाज में शूद्रों का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। किसी कार्य जैसे विवाह, गवना आदि के अवसर में भी इनका उल्लेख मिला है।

जाति व्यवस्था-

भोजपुरी प्रदेश में इन चार वर्गों में कई वर्ग हो गये हैं जो स्थानीय जनता के लिए अत्यन्त उपयोगी है। काम के अनुसार भी कई जातियाँ हैं। तेली तेल देता है, माली हार देता है, बढ़ई पलंग बनाता है-

तेलिनि ले आवे तेल, तमोलिनि पानवा।
मालिनि ले आवे हार, कन्हइया पहिरावहीं।
नन्द बढ़इया जी से कहीह पलंग एक चाहतीं।
झूलत राधाकृष्ण त आपन झुलावही।

नाई बाल बनाता है-
नोह काटु नउवा, नोह काटु रे।

धोबी कपड़े धोता है-
कहला पर धोबिया, गदहा पर ना चढ़े।

गोंड भांड़ झोंकता है-
भरसाई घरे दबिला माजा करी हो माजा करी
गोड़िया पूछे गोड़निया से हो, दबिला के कारबार कइसे चली।।

लोहार लोहे का काम तथा सोनार गहने बनाता है-
सौ चोट सोनार के त एक चोट लोहार के।

बढ़ई पलंग, पालना, हल, खुरपी, कुदाली बनाता है-
ए बढ़इया काठे के होरिलवा गढ़ि हेतु, त जियरा जुड़ाइबि।

भोजपुरी समाज में यदि कोई दूसरी जाति का कार्य अपना लेता है तो उसका घाटा होता है-
तेली के काम तमोली करे, राम मारे ना अपने मरे।

यहाँ लोग अपने कर्म तथा धर्म का महत्व देते हैं कहा भी जाता है-
आपन करम आ धरम न छोड़े के।

परिवार-
भोजपुरी लोकगीतों में पारिवारिक जीवन का चित्रण हुआ है। भोजपुरी परिवार में संयुक्त परिवार प्रचलित है। इसमें दादा-दादी, माता-पिता, पति-पत्नी भाई-बहन पुत्र-पौत्र आदि सभी एक ही घर में सम्मिलित रूप से रहते और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते है। यद्यपि आधुनिक युग में अनेक परिवर्तनों के कारण इसकी श्रृंखला टूट रही है। व्यक्ति से पहले परिवार बनता हैं उसके बाद समाज बनता हैयदि परिवार में फूट पड़ जाती है तो गँवार भी इससे फायदे उठाते हैं और गाँव में फूट पड़ जाती है तो इससे क्षेत्र भर के लोग फायदे उठाते हैं

घर फूटे गँवार लूटे, गाँव फूटे जवार लूटे।

भोजपुरी लोक साहित्य में पितृसत्तात्मक परिवार का चित्रण मिलता है अर्थात् इस समाज में पिता ही घर का मालिक कर्ता-धर्ता होता हैं उनकी आज्ञा सर्वोपरि होती है। बाबा-दादा के नाम पर परिवार की प्रतिष्ठा भी बढ़ती है। बच्चे का पालन-पोषण भी अच्छी तरह बड़े लोगों की देख-रेख में हो जाता है जब लड़कियाँ हठ करती है तो औरते कहती हैं-

“बाबुआ भइल बाडू, तोहरे से नाँव-गाँव चली?”

कोई लड़की अपने लिए योग्य वर ढूढने के लिए अपने बाबा से कहती है-

बर खोजु बर खोज, बर खोजु बाबा।
भइलो बिअहन जोग रे।

अतः पारिवारिक जीवन सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, प्रेम-कलह आदि का समष्टि रूप हैं जिसमें रूचिकर और अरूचिकर दोनों प्रकार के सम्बन्ध होते हैं।

विविध सम्बन्ध-
भोजपुरी परिवार में कुछ लोगों का सम्बन्ध तो आपस में बड़ा मधुर होता है, परन्तु कुछ व्यक्तियों का आपसी व्यवहार बड़ा कटु होता है’ मधुर सम्बन्ध में माता-पुत्र, माता-पुत्री, पिता-पुत्र, भाई-बहन, पति-पत्नी का प्रेम तथा कटु सम्बन्ध में सास-पतोहू, ननद-भावज, देवर-भावज, भसुर-भवहि ससुर-पतोहू का सम्बन्ध देखने को मिलता है-

माता-पुत्र:-
भोजपुरी लोकगीतों में पिता और पुत्र से प्रेम की चर्चा बहुत कम पायी जाती है, परन्तु माता और पुत्र के सहज एवं स्वाभाविक स्नेह का वर्णन अधिकांशतः पाया जाता है। माँ का हृदय हमेशा अपने बच्चे के लिए चिन्तित रहता है-

जइसे कोहरा के अऊँवा तलकि-तलकि उठे,
ओइसे मयरिया के कोखिया तलफि-तलफि उठे।

भोजपुरी में एक कहावत है माँ के बिना आदर कौन करेगा? वर्षा के बिनासागर कौन भरेगा?

माई बिनु आदर के करी, बरखा बिनु सागर के भरी।

माता कौशल्या का पुत्र राम के प्रति स्नेह जिसमें वे कहती है- तुम मेरे हृदय में निवास करते हो और लक्ष्मण मेरी आँखों की पुतली है अतः वन जाने की आज्ञा मैं तुम्हे कैसे दे सकती हूँ-

‘राम त मोर करेजवा, लखन मोरी पुतरिया हो।
आरे रामा, सीता रानी केरा चरिया मैं कइसे बन भाखे हो।

कौशल्या कैकेयी से कहती हैं कि तुमने राम को वन भेजकर मेरे. बसाये हुए घर को उजाड़ दिया-

आछा काम ना कइलू ए कैकेयीं आछा काम ना कइलू।
हमार बसल भवनवा उजरलू ए कैकेयी, आछा काम ना कइलू ।।

माता का पुत्र के प्रति प्रेम स्वाभाविक होता है। यह प्रेम स्फटिक के समान स्वच्छ और गंगा जल के समान है। संस्कृत के एक स्तोत्र में लिखा है कि पुत्र भले ही कुपुत्र हो जाए परन्तु माता कभी कुमाता नहीं होती। माँ की ममता, वह दिव्य आलौकिक विभूति है जो संसार में मिलना कठिन है। एक माता अपने पुत्र की कुशलता के लिए शीतला माता से भीख माँगती है-

मइया-मइया हो शीतला मइया, मइया बलकवा भीखि दी।

माता-पुत्री :-
माता का अपनी पुत्री के प्रति अगाध प्रेम रहता है। पुत्री के जन्म के समय तथा विवाह के समय वर ढूढ़ने की परेशानी के कारण माता को अपमान सहना पड़ता है। फिर भी माता का अपनी पुत्री के प्रति अगाध प्रेम होता है। ससुराल जाते समय माता का अपनी पुत्री के प्रति प्रगाढ़ प्रेम देखने को मिलता है वह अपनी बेटी से कहती है दही-भात खा लो, फिर तो सास की ही आशा रहेगी-

कइसे-कइसे जइबू ए बछिया सात नदी पार
कइसे-कइसे रहबू ए बछिया तपसिया के पास।
साइ लेहू ए बछिया इहे दही-भात।
फेरु त जे होइहें ए बछिया के सासु जी के आस।।

विदाई के समय भाई की आँखों से लगातार आँसू गिरने से धोती तक भींग जाती है-

बाबा के रोवले, गंगा बढि अइली, आमा रोवले अन्होर ए।
भइया के रोवले चरन धोती भीजे, भऊजी नयनवाँ ना लोर ए।।

पुत्री का अपनी माता के प्रति भी अत्यन्त प्रेम रहता है वह अपने भाई से ससुराल के कष्टों को बताती है, परन्तु वह अपने दुःख को माता से बताने के लिए मना करती है वह कहती है कि भइया मेरे दुःखों को सुनकर माता का हृदय फट जाएगा-

इ दुःख जीन कहिया, भाई के अगवाँ हो ना।
माई छतिया बिहरी, मरि जइहें हो ना।।

पिता-पुत्र :-
भोजपुरी लोकगीतों में पिता-पुत्र का प्रेम भी देखने को मिलता है। पुत्र होने पर पिता को गर्व होता है वह सोचता है कि बड़ा होकर पुत्र उसकी सेवा करेगा। एक गीत में कहा गया है- पिता की सेवा में संलग्न पुत्र ही वास्तव में पुत्र है अन्यथा दुष्ट पुत्र के उत्पन्न होने से क्या लाभ-

पूत त उह जो पिता को सेवै,
नाहीं तो पाजी के जनमें से का भा।।

एक अन्य गीत देखिए जिसमें विवाह के लिए जाते समय पुत्र अपनी माता से कहता है कि मैं तो पिता जी का आज्ञाकारी पुत्र बनूगाँ और मेरी पत्नी तुम्हारी दासी बनेगी-

हमहूँ होखबि ए आमा बाप के सेवइत,
धनि होइहैं दासी तोहार ए।।

पिता-पुत्री :-
पिता का अपनी पुत्री के प्रति प्रेम की भावना छिपी रहती है वह अपनी पुत्री को सुखी देखने के लिए अपने समर्थ से ज्यादा धन तथा अच्छा से अच्छा वर ढूंढता है-

पुरुब खोजली बेटी पछिम खोजली, अवरु उड़ीसा जगनाथ रे,
आहे तीनों भुवन तोहें वर खोजली, कतही ना मिले सीरीराम रे।

एक गीत देखिए जिसमें बेटी के ससुराल जाते समय पिता दुःखी होकर कहते हैं-

दुअरा भुलीय भूली बाबा जे रोएले,
कतही ना सुनो ए बेटी पयलवा झनकार।।

लोकगीतों में पुत्री के प्रति पिता का स्नेह दिखाया गया है। लेकिन माता का पुत्र-पुत्री प्रेम पिता के स्नेह से बढ़कर दिखलाया गया है।

भाई और बहन :-
भाई और बहन के प्रेम का आदर्श स्वरूप भोजपुरी लोकगीतों में देखने को मिलता है। भाई के प्रति बहन के मन में तथा बहन के प्रति भाई के मन में अगाध प्रेम रहता है एक गीत जिसमें दुष्ट भावज अपनी ननद को फटही-लुगरी-पुराना वस्त्र पहनने के लिए देती है तथा खोइछां में बनउर-कपास का बीज देकर विदा करती है लेकिन प्रेमी भाई उसे रेशमी साड़ी पहनकर ससुराल जाने के लिए कहता है-

ए बहिनी खोलिद तू फटही लुगरिया,
बनउर कोरा ‘खोइंछा’ हो।
ए बहिनी पहिरहु लहंगा परोखा,
मोहर भरि खोइछा हो।।

भाई जब बहन के घर कुछ दिनों के बाद जाता है तो बहन भाई के पास इस प्रकार दौड़ती है जैसे गाय अपने बछड़े के लिए दौड़कर जाती है-

आगे आगे आवे बहंगियाँ, पीछे घीव गागर हो।
ओहि पीछे भइया असवारवा, बहिनी के देस जाले हो।
जइसे दउरे गइया त अपना बछरुआ खातिर हो।
ओइसे दउरली बहिनियां त अपना भइयवा खातिर हो।

भाई के आने पर बहनें अत्यन्त प्रसन्न हो भाई को आदर और अतिशय सम्मान देती हैं वह अपने भाई को स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन कराना चाहती है-
आटावा जें चालि चालि, लुचुई पकवली हो ना।
बहुअरि खोंटि लिहली पलकी के सागवा हो ना
बहुअरि रीन्हीं लिहली मुंगिया के दलिया हो ना।
बहुअरि बासमती चाउर के भातवा हो ना।
रामा ऊपर से तावल घीव के धारवा हो ना।।

एक अन्य गीत देखिए जिसमें गाँव की स्त्रियों द्वारा पूछे जाने पर कि आज तुम्हारे यहाँ कौन आया है तब बहन अत्यन्त उल्लास तथा प्रसन्नता के साथ कहती है-

कहेली कवन बहिनी हुलिसी के ना।
आजु मोर भइया अइला हा।।
आजु मोर हवलदार अइले हा।
आजु मोर सुविदार अइले हा।।
आजु मोर भइया अइले हा।
आजु मोर भइया अइले हा।।

भाई और बहन का स्वाभाविक एवं निःस्वार्थ प्रेम भोजपुरी लोकगीतों में देखने को मिलता है।

पति और पत्नी :-
लोकगीतों में पति और पत्नी के सम्बन्ध का अत्यन्त मनोरम और सुन्दर चित्रण हुआ है। पति-पत्नी का सम्बन्ध एक पवित्र बन्धन माना जाता है। हमारे यहाँ किसी भी धार्मिक कृत्य के समय दोनों व्यक्ति एक साथ पूजा करते हैं-
गाई के गोबर महादेव, आँगना लिपाई
चउकहिं बइठेले महादेव गइले कोहनाई
बहिया लफाइ गउरादेइ लीहली मनाई ॥

कोई नवविवाहिता पत्नी ससुराल आकर अपने माता-पिता और भाई-बहन के लिए दुःखी होती है तो उसका पति सान्त्वना देते हुए कहता है-

भुखिया में भोजन खिअइवों पिअसिया में पानी देबों हो।
धनिया रखबों मैं हियरा लगाई, बबैया के बिसराबहु हो।

पत्नी अपने पति की मार और कष्ट सहकर भी अपने पति के लिए तीज एवं शिवरात्रि का व्रत करती हैं-

सेनुर लागी भूखिले सिव के सिवरतिया।

कोई पति व्यापार के लिए बाहर जाने बला है। उसकी पतिपरायणा पत्नी भी जाने की जिद्द करती है और कहती है कि मैं आप के लिए सब कुछ छोड़ दूंगी सभी कष्ट सह लूँगी-

भूख मैं सहबो, पियास मैं सहबो, पान डारबि बिसराई।
तोहरे संगे पिया जोगिनि होइबों, ना संग बाप ना भाई।।

कोई पत्नी अपने पति संग रहने के लिए चना खाकर गुजर करने के लिए तैयार है-

दमरी के चना बरिस दिन खइबो, महँग भइले ना।
मोरे हरि के नोकरिया महँग भइले ना।।

पति अपनी पत्नी को उसी रूप में मानता है किन्तु ऐसे भी पति है जो पत्नी पर अत्याचार करते हैं, उन्हें लोक क्षमा नही करता-

अइसन पुरुखवा के मुँह नाहिं देखबि, जिनि राम देले वनवासरे।
काटि जइती धरती अलोप होई जइतीं, अबना देखबि संसार रे।।

सास और बहू :-
भोजपुरी लोकगीतों में सास को दारुनिया (कष्ट देने वाली) की उपाधि से विभूषित किया गया है इन गीतों में सास और बहू के सम्बन्ध का विषम,कटु और क्रूरतापूर्ण चित्रण हुआ है।

कोई नवविवाहिता वधु को सास कोल्हू के बैल की तरह काम करवाती है ननद व्यंग्य वचन बोलती है तो वह उत्तर देती है-

माई तोहार प्रभु मारे गरिआवे, बहिनी बोले बिरह बोल हो
लहुरा देवरवा मारे लाली छड़िया, ओही गुने बदन मलीन हो।।

सासु मारे हुदुका, ननदिया पारे गारी हो ना।
ए चदरिया के अलोतपा, देवरवा हमरों ना।।

सास और पतोहू का झगड़ा प्रसिद्ध है एक गीत जिसमें सास और पतोहू में ऐसा घनघोर युद्ध हो रहा है कि दोनों एक दूसरे को मूसल से मार रही है बूढ़ी सास अपनी गर्व भरी उक्ति में गुस्से में आकर कहती है-

सासु पतोहिया में लागल बा झगड़वा कइली मुसरवा के मार।
आजु पतोहिया के हम बन दिहितों जो जियत रहिते बूढ़ हमार।।

एक अन्य गीत देखिए जिसमें बहू सास के कष्टों से दुःखी होकर कहती है-

जाहि रे घर हिंगुआ ना मँहके, जिरबा के कवन बधार।
जाहि रे सासु दारुनिया, बहुआ के कौन सिंगार।।

ननद और भावज :-
भोजपुरी लोकगीतों में ननद और भावज के पारस्परिक विवाद का विषम एवं कटु चित्रण हुआ है। इन गीतों में ननद को कठोर शासक के रूप में चित्रित किया गया हैएक गीत जिसमें ननद झगड़ा लगा देती है, जिससे दुःखी होकर पति परदेश चला जाता है-

ननदी झगरवा कइली, पिया परदेसे गइले।
भउजी रोवेली-छतिया फाटे हो राम।।

एक अन्य गीत-जिसमें नवविवाहिता प्रथम बार अपनी ससुराल जाती है तब उसकी ननद अपनी माँ से कहती है कि यह हल जोतने वाले किसान की बेटी है इसलिए इसे रहने के लिए भूसा रखा जाने वाला घर दो-

भइया तो न बोले पावे, ननद उठि बोले।
अम्मा एहि हरजोतवा के बिटिया दिहों घर भुसहुल ।।

भावज की भी बोली विष के समान कड़वी होती है विवाह होने पर ननद को माता-पिता भाई उपहार देते. हैं परन्तु दुष्ट भावज उसे अफीम का एक टुकड़ा उपहार रूप में देती है-

आमा जो देली राम लहर पटोखा, बाबा देले धेनु गाई।
भइया जे देले राम चढ़ने के घोड़वा, भउजी महुरवा के गांठि।।

इ दुःख जनि कहिह भइया भउजी के अगवा हो ना।
भउजी दुई चारि घर कहि अइहें हो ना।।

देवर और भावज :-
देवर और भावज का सम्बन्ध अत्यन्त पवित्र होता है लेकिन भोजपुरी लोकगीतों में कही तो देवर और भावज के अनुचित प्रेम प्रस्ताव, दुष्ट व्यवहार तो कही आदर्श रुप चित्रित किया गया है। पति का छोटा भाई होने के कारण भाभी का देवर के प्रति विशेष प्रेम होता है-

देवरा हो मोरे देवरा आरे तू मोरे देवरा हो।
मोरा देवरा, जो हरि होय अकेले, तो बांचि सुनायउ हो।।

एक अन्य गीत जिसमें देवर और भावज के दूषित प्रेम- सम्बन्ध देखने को मिलता है-

जब तक भउजी, भइया हमार अइहे हो।
कि तब लागि ना, भउजी जोर ना सनेहियां कि तब लगिना।।

भसुर और भवह :-
भोजपुरी समाज में भसुर और भवह का सम्बन्ध पवित्र माना जाता है पति के बड़े भाई को भसुर’ तथा छोटे भाई की पत्नी को ‘भवह’ कहा जाता है। भसुर के द्वारा अपनी भवह को स्पर्श करना तथा दृष्टिपात करना उचित नहीं समझा जातापति के अग्रज होने के कारण भसुर पूज्य तथा आदरणीय व्यक्ति माना जाता हैं। भोजपुरी लोकगीतों में भसुर और भवह का अनुचित एवं अशोभनीय सम्बन्ध चित्रित किया गया है एक गीत देखिए जिसमें भसुर अपने अनुज की स्त्री से छेड़खानी करता है-

पानी के पियासल जिरवा, गइली पनिघटवा रे।
घर के मसुरवा, बटिया रोंकेले नु रे जी।
छोडु-छोडु मसुरवा रे मोर पनिघटवा रे।
बरसेला पनिया भींजेला मोर चुनरिया नु रे जी।।
जउ तोरा जिरवा रे मीजले चुनरिया रे।
हमरो दुपटवा भसुर आगि लगाइबि।
हमरी चुनरिया सीतल बयरिया नु रे जी।।

ससुर और पतोहू:-
भोजपुरी लोकगीतों में पिता और पुत्र के सुन्दर सम्बन्धों का वर्णन मिलता है परन्तु ससुर और पतोहू के अनुचित एवं असुन्दर सम्बन्ध का चित्रण मिलता है। एक गीत जिसमें ससुर और पतोहू के बीच अनुचित प्रेम सम्बन्ध का वर्णन हुआ है-

सासु दाँत के बतीसी, बहू का बांही गोंदना।
ससुर जेंवना ना जेवेले, नीहारे मोर गोंदना।
जाहू हम जनिती ससुर नीहरव तू गोदना।
ससुर नाही रे गोदइती, आपन बाही गोदना।।

समधी और समधिन:-
भोजपुरी लोकगीतों में बताया गया है कि लड़की का पिता कितना ही धनी या शक्तिशाली हो लेकिन उसे दामाद के पिता के सामने हाथ जोड़े खड़ा रहना पड़ता है-

गढ़ नवे परबत नवे, हम कबहूँ ना नई।
बेटी हो सीता बेटी कारने सिरु आजु नवाई।।

एक अन्य गीत देखिए जिसमें समधिन लड़की वालों की शिकायत करती हुई कहती है-

हँसत खेलत मोरे बाबू गउअनि, मन बेदिल काहे अउअनि।
सासु छिनरिया जोग करए, बासी भात खट दही दीहुए।।

सौत और सौत:-
भोजपुरी लोकगीतों में सौत-सौत का कटु, भीषण वीभत्स और अरुचिकर सम्बन्ध मिलता है। एक गीत जिसमें पति परदेश से सौत लेकर आता है इस पर उसकी दुःखिया स्त्री कहती है-

आरे बारहो बरिस पर आना
सवतिन लिए साथ,
दिल का दरद ना जाना।

कवन गुनहिए चुकलों ए बालम तोर नयना रतनार।
सवती के बतिया करैजवा मैं साले, काँपला जियरा हमार।।

सौत का दुःख कोई भी स्त्री सहन नहीं कर पाती। यह दुःख इतना असह्य होता है कि स्त्रियाँ आत्महत्या तक कर लेती है। एक गीत जिसमें पति के साथ . सोई हुई अपनी सौत को देख कर कोई स्त्री आत्महत्या करने के लिए अपने सास से कटारी और छुरी मांग रही है-

देहु ना सासु हो छुरिया कटरिया,
कि छति हो घलवों ना हम आपन सवतिया।।

भोजपुरी लोकगीतों में सौतिया डाह का अत्यन्त सजीव एवं सटीक चित्रण हुआ है। यह एक ऐसा विषय है जिसका कष्ट प्राणी को खूखार बना देता है।

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