भोजपुरी साहित्य में हास्य-व्यंग्य

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सुधीर प्रियरंजन
सुधीर प्रियरंजन

नूनों आ मरिचा के साथे खाके पेट भरल जा सकऽता आ छतीसो व्यंजन आ छपनों परकारो के साथे। बाकिर नून-मरिचा के साथे खाके खालकाम चलावल जा सकऽता, भूख से बेसी खिआ देबे के बूता एकरा में कहाँ बा? जहवाँ तरह-तरह के व्यंजन होखे, शु( घीव में के बनल आ साथे तनी चटपटियो त फेर का कहे के? खाये के पहिलहीं मुँह में पानी आ जाई। आ फेर ई के सोची जे का होई? पची आ कि ना पची ई सोचे के केकरा फुर्सत बा? बाकिर का खिआवे वाला बुड़बक होला? ओइसन्का खाना के साथे खटाई के चटनी आ एगो कागजी निमो के फाँक जरूरे ध देला जवना के नयका फैशन में सलाद कहल जाला। भला! अपना मूड़ी काहे हत्या मोल लेबे जाव?

ठीक इहे बात, कवनो भाषा के साथे बा! भाषा के परिभाषा त इहे नूँ ह जे ‘‘भाषा एगो माध्यम ह जवना से अपना मन के बात दोसरा तक पहुँचावल जा सको आ ओकरा के सुनेवाला उहे बात बूझो।’’ बाकिर दोसर कतना बूझी ई कहे वाला के लूर पर निर्भर करऽता। एही ‘लूर’ के साहित्य में शब्द-शक्ति के नाम से जानल जाला- अभिधा, लक्षणा आ व्यंजना।

आचार्य मम्मट लिखले बाड़े जे साक्षात् सांकेतिक अर्थ के बोध करावे वाला शब्द-शक्ति के अभिधा कहल जाला। एकरा से जवना अर्थ के बोध होला ओकरा के अभिधेयार्थ चाहे वाच्यार्थ कहल जाला। अभिधा शब्द के शक्ति ह जवन शब्द के साधारण आ व्यवहारिक अर्थ के परगट करेला। अभिधा शब्द-शक्ति से तीन तरह के शब्दन के अर्थ-बोध होला- 1द्ध रूढ़ शब्द, 2द्ध यौगिक शब्द आ 3द्ध योग रूढ़ शब्द।

लक्षणा के बारे में आचार्य मम्मट लिखले बाड़े जे अर्थ के बाधित भइला पर रूढ़ि चाहे प्रयोजन के कारण जवना शक्ति से मुख्य अर्थ से सम्बन्ध रखे वाला कवनो दोसर अर्थ निकलत होखे त वोह शक्ति के ‘लक्षणा’ कहल जाला। जइसे-‘देवदत चैकन्ना हो गइले।’ एह वाक्य में ‘चैकन्ना’ के मुख्यार्थ बा -‘देवदत चार गो कान वाला हो गइले।’ इहाँ मुख्यार्थ ;चार कान वालाद्ध बाधित बा, काहे कि देवदत के दुइएगो कान बा, चार गो ना। एहसे चैकन्ना से सम्गन्धित दोसर अर्थ ‘सावधान’ लक्षणा शब्द-शक्ति से कइल जाई आ तब एह वाक्य के अर्थ होई जे ‘देवदत सावधान हो गइले।’ लक्षणा में कवनों शब्द के साधारण चाहे व्यवहारिक अर्थ ना लगावल जाला बल्कि ओकर कवनो दोसर लक्षित अर्थ खोजल जाला।
इनका अनुसार लक्षणा के दूगो मुख्य भेद बतावल गइल बा- 1द्ध रूढ़ा लक्षणा आ 2द्ध प्रयोजन लक्षणा।

तीसरका शब्द-शक्ति व्यंजना ह। जवना शब्द-शक्ति के चलते मुख्य आ लक्ष्य अर्थ से अलग कवनो तीसर अर्थ के बोध होखत होखे त वोह शब्द-शक्ति के व्यंजना शब्द-शक्ति कहल जाला। ‘अंजन’ शब्द में ‘वि’ उपसर्ग लगवला से ‘व्यंजन’ शब्द बनल बा। एहसे ‘व्यंजन’ के माने भइल विशेष प्रकार के अंजन। आँख में लगावल अंजन जइसे आँख के रौशनी ठीक क देला आ साफ लउके लागेला ओइसहीं व्यंजना शब्द-शक्ति शब्दन के मुख्यार्थ आ लक्ष्यार्थ के पीछा छोड़त ओकरा जड़ में छिपल अर्थ के अंजोरा में ले आ देला। अभिधा आ लक्षणा अपना अर्थ के बोध करा के जब अलग हो जाले सन् तब जवना शब्द-शक्ति से व्यंग्यार्थ के बोध होला वोही के व्यंजना शब्द-शक्ति कहल जाला। ‘अभिधा’’ शब्द के सीधा-सीधा सांकेतिक अर्थ बतावेला आ लक्षणा, मुख्य अर्थ के असि( भइला पर रूढ़ि खातिर चाहे कवनो प्रयोजन के सि(ि खातिर मुख्यार्थ से जुटल कवनो दोसर अर्थ लक्षित करावेला, बाकिर जब अभिधा आ लक्षणा दूनू असली अर्थ बतावे में असमर्थ हो जाले सन् त व्यंजना शब्द-शक्ति के सहारा लेबे के पड़ेला। अभिधा, कवनो बात के ठीक वोइसहीं कहेला त लक्षणा, लक्ष्यार्थ बतावेला बाकिर व्यंजना एह दूनू के लाचारी के बादो अर्थ बोध करा देला।
व्यंजना के दूगो मुख्य भेद बा-1द्ध शाब्दी व्यंजना आ 2द्ध आर्थी व्यंजना।

जब व्यंग्यार्थ कवनो खास शब्द पर निर्भर होखे त ओकरा के शाब्दी व्यंजना कहल जाला। आ जब व्यंग्यार्थ, शब्द पर निर्भर ना होकेे, अर्थ पर निर्भर होखे त ओकरा के आर्थी व्यंजना कहल जाला। काव्य में अभिधा के अधम, लक्षणा के मध्यम आ व्यंजना के उत्तम स्थान देहल गइल बा। आचार्य बिष्वनाथो लिखले बाड़न- ‘‘वाच्यातिशयिनि व्यंग्ये ध्वनिः काव्यमूत्तमं।’’ माने वाच्यार्थ भा काव्यार्थ जब बाधित होले सन् त व्यंग्यार्थ परगट होला जवना में एगो विशेष प्रकार के अर्थ निकलेला आ एही के ध्वनि कहल जाला आ जवना काव्य में अइसन ध्वनि निकलेला वोही काव्य के सबसे निमन मानल जाला। समुन्दर में जइसे लहर हिलोरा लेत रहेला वोइसहीं आदमियों के मन में भावना हिलोरा लेत रहेला। आदमी वोही भावना के भावानुरूप भाषा के परिधान पेन्हावेला। इहे कारण बा जे हर रचनाकार के रचना एक-दोसरा से भिन्न होला। रचनाकार अपना भावना के विभिन्न प्रकार से सजावे-सँवारे के कोशिश करेला ताकि अधिका-से-अधिका निमन हो सको। एही सब प्रयासन के ई फल बा जे आज अनेक विधा आ शैली हमनीं के देखे के मिल रहल बा।

नाटक एही में के एगो फल ह जवन अपना मन के भाव दोसरा तक सही-सही ढंग से पँहुचा देबे में एगो बढ़ियाँ साधन के रूप में आपन पहचान बनवले बा। एह में रचनाकार अपना बात के रस में सराबोर कके, अलंकार से अलंकृत कके चाहे अइसे कहीं जे सब सभाखन से सुशोभित कके नया से नया अंदाज में लोग के सामने रखेला। एकरा में केहू के अपना तरफ खींच लेबे के अधिका ताकत होला। बाकिर रचनाकार के त अतने धर्म ना होला जे लोग ओकरा बात के सुन लेव आ वोह लोग के मनोरंजन हो जाव। ओकर त उद्देश्य होला समाज में फइलल कुरीति, अंधविश्वास, पाखण्ड आ दुराचार के उखाड़ फेंकल। रचनाकार युग के सृष्टि आ स्रष्टा दूनू होला। युगे से बनेला आ नया युग बनावेला। सृजने ओकर धर्मों होला आ कत्र्तव्यो। आ शायद इहे धर्म आ कत्र्तव्य के मामला लेके ‘प्रहसन’ बनावल गइल होई।

प्रहसन लिखला के उद्देश्य मनोरंजन त बड़ले बा समाज में फइलल कुरीति, अंधविष्वास आ धर्म के नाम पर पाखण्ड पर कुठाराघात आ मूलोच्छेदनों। बाकिर समाज के बुराई के खाली बुराई कह के ई उमेद कइल कि समाज बुराई मुक्त हो जाई त ई त बेकार बात भइल। व्यंग्य आ वक्रता से बुराई के व्यक्त कइल एगो कला ह। एकरा में सांपो मर जाला आ लाठियो ना टूटेला।

लाठी बचाके सांप मारे के कला व्यंग्य ह। ‘व्यंग्य’ शब्द अबहीं ले विवाद के कठघड़ा से बाहर नइखे आ सकल। विभिन्न विचारक लोग एकजूट हो के एकरा के आधुनिक युग के नूतन पुष्प के रूप में सकारऽता आ वोह लोग के इहे कहनाम बा जे व्यंग्य एगो साहित्यिक विधा ह आ एकरा खातिर लोग कतना दलीलो दे देले बा। बाकिर हमार ई साफ कहनाम बा जे अबले विधा के चाहे जवन भी परिभाषा देहल गइल बा वोह में ‘व्यंग्य’ कवनों रूप में समात नइखे। विधा के परिभाषा ह- ‘‘कवनों भाषा में अपना मन के बात कवनों खास ढंग से परगट कइल जाला जवन खास-खास नियम से बन्हाइल होला वोही ढंग के विधा कहल जाला।’’ जइसे- कहानी, उपन्यास, कविता, लेख आदि।

अब त सोचे वाला बात आ गइल जे व्यंग्य कहानियों में हो सकेला, उपन्यासो में हो सकेला, कवितो में हो सकेला आ लेखो में हो सकेला त का व्यंग्य वाला कहानी, कहानी ना रही? व्यंग्य वाला उपन्यास, उपन्यास ना रही? व्यंग्य वाला कविता, कविता ना रही? का व्यंग्य वाला लेख, लेख ना रही? आ अगर रही त फेर व्यंग्य विधा कइसे भइल? विधा त कहानिए, उपन्यास, कविता आ लेख रहिहें सन्। एह से व्यंग्य विधा ना ह बल्कि अभिव्यक्ति के एगो सशक्त साधन ह। अगर गहराई में जाइल जाव त एकरा के व्यंजना शब्द-शक्ति कहल जा सकेला। एकरा के हमनी के भीतर के कसक बाहर निकाले के एगो बढ़ियाँ खिड़की भा झरोखा कह सकऽतानी सन्।‘व्यंग्य’ प्रहसन के पीछा छोड़त काफी आगे निकलत चल गइल। साहित्य त साहित्य, बोलचाल के आम भाषा तकले जोड़ पकड़ लेहलस चाहे कवनो भाषा होखे। हँ! भाषा के अनुसार एकर नाम जरूरे अलगे-अलगे रखाइल – सटायर, व्यंग्य, हूज, तंज, गाभी, आदि।

एगो बात ध्यान देबे लायक बा- कोरा व्यंग्य, ‘सत्यं ब्रुयात, प्रियं ब्रुयात, न ब्रुयात सत्यं अप्रियं’ के खण्डित करेला एह से अप्रियं के प्रियं बनावे खातिर एकरा में तनी हँसियो के पुट दे देहल गइल आ तब तंज, तंजो-मजाह हो गइल आ व्यंगय, हास्य-व्यंगय। आ धीरे-धीरे ई समाज के एगो अभिन्न अंग बन गइल। सब जगहे विराजमान हो गइल- ‘हम में तुम में खड़क खम्भ में’।

हास्य, ‘व्यंग्य-वाण’ से लागल घाव पर मलहम ह, चाहे अइसे कहल जाव जे ‘जरला पर बर्नौल’। ई सच्चाई सहे के ताकत बढ़ावेला। एगो सफल व्यंग्यकार उहे ह जे ‘हँसी में बीख’ ना कके ‘बीख में हँसी’ करे। एह से व्यंग्य के साथे हास्यो के रहल जरूरी बा। बाकिर ओकरो एगो सीमा होखे के चाँहीं। अइसनका ना जे हास्य के पीछे व्यंगये के कतल हो जाय। दूनूँ के एह हिसाब से होखे के चाँहीं जे रचना सुनला पर त हँसी आवे बाकिर गुनला पर काँट लेखा गड़ जाव। आ ई तबे संभव बा जब दूनूँ के ताल मेल बनल रहो। अंग्रेजी के विद्वान गुडमैनों लिखऽतारे जे- ‘व्यंग्य के आधुनिक युग में हास्य के रूप में प्रसि(ि पावल व्यंग्य खातिर भविष्य में खतरा बन सकेला।’

हिन्दी, उर्दू चाहे भोजपुरी कवनों होखे, हास्य- व्यंग्य के प्रतिभा जवन भोजपुरिया क्षेत्र में बा दोसरा क्षेत्र में नइखे लउकत। अइसन लागऽता जे एह क्षेत्र के पानिए में ई असर बा आ चाहे भोजपुरिए जवन एजा के लोग के मातृभाषा ह, के ई गुण बा जवना के चलते एकर संख्या आ स्तर बहुते बढ़ल-चढ़ल बा। खास कके काव्य में एह क्षेत्र के भूमिका महत्वपूर्ण रहल बा। हालाकि अइसन बात नइखे जे लेख के क्षेत्र में एजा के हास्य-व्यंग्यकार पीछे होखस।

प्राचीन परंपरा के अनुसार जइसन आउर भाषा- साहित्य में देखल गइल बा, हास्य-व्यंग्य कुछ हेय दृष्टि से देखल जात रहे। उर्दू-साहित्य में अकबर एलाहाबादी से एकरा इज्जत मिले के शुरू भइल। हिन्दी में बेढब बनारसी, कवि चोंच, बेधड़क बनारसी, जी.पी. श्रीवास्तव वगैरह एकर पहचान बनावल लोग आ इज्जत दिववावल लोग बाकिर भोजपुरी में अइसन बात कबो ना रहे। शुरू से एकर एगो आपन महत्व रहे। कबीर के उल्टवाँसी त लोग के जबान पर आपन घरे बना लेले रहे। अइसे त उनको से पहिले एकर स्थान भोेजपुरी में लउकऽता जवना में ढेंढर पाद के नाम लिहल जा सकऽता जे भोजपुरी के तब के कवि हउँअन जवना घड़ी हिन्दी आ उर्दू के जनमो ना भइल रहे।

पद्य के क्षेत्र में व्यंग्य के एगो नया मोड़ देबे वाला में सबसे पहिले ‘मुँहदुबर’ जी के नाम आवऽता जे रहले त मुँहजोर आ आपन नाम रखले मुँहदुबर आ कविता लिखले- ‘हुरपेटीं मत मुँहदुबर के, हई चार बीस के डाली लीं’ एह से बड़हन व्यंग्य आउर का हो सकऽता? इनका तनिए बाद पं. रघुनाथ चैबे आइल रहस ‘सनेहिया’ लेके। खाँटी मोहाबरा के माध्यम से करुण रस के बरखा बरिसा देहलन जवना से भोजपुरी के पतई-पतई ले भींज गइल। वोइसनको कवि व्यंग्य- वाण चलावे से बाज ना आवत रहले। बाज अइबो करस त कइसे? उहो त भोजपुरिए माटी पर नूँ जनम लेले रहले।
स्व. प्रदीपोजी के नाम कइसे भुलाइल जा सकऽता? इनका व्यंग्य करे के तरीके दोसर रहे। इनका व्यंग्य के अगर ‘ताना’ कहल जाव त कहीं अधिका ठीक होई। पढ़ल- लिखल हिन्दी भाषीलोग के भाषा पर ताना मरले रहस ‘अप टू डेट हिन्दी’ शीर्षक कविता लिखके। इनका लायक भोजपुरी में एगो बड़ा बढ़ियाँ कहाउत लउकऽता जे ‘ई मीठे-मीठे काटेलन’।

अइसे त काव्य के क्षेत्र में देखल जाव त बहुते हास्य-व्यंग्यकार मिलिहन बाकिर जे लोग भोजपुरी हास्य-व्यंग्य के स्तर उळपर उठावे में आपन योगदान देहल ओह में मुँहदुबरजी, पं. रघुनाथ चैबे, लक्ष्मण पाठक ‘प्रदीप’, नागेन्द्र नाथ ‘बावरा’, शैदा, कुंज बिहारी प्रसाद ‘कुंजन’, सुनील कुमार ‘तंग इनायतपुरी’, चकाचक बनारसी, पं. दुधनाथ शर्मा ‘श्याम’, बलदेव श्रीवास्तव ‘बल्ली लाल’, कुबेर नाथ मिश्र ‘विचित्र’, विरेन्द्र मिश्र ‘अभय’, रामजी सिंह ‘मुखिया’, विजय ‘बलियाटिक’, ध्रुव नारायण सिंह, मंगला प्रसाद सिंह ‘मंगल’, प्रकाश उदय, आदि के नाम आगे आवता।

वोइसहीं गद्य के क्षेत्र में भोजपुरी हास्य-व्यंग्य के जे लोग एगो नया आयाम देहल वोह लोग में रामेश्वर सिंह काश्यप ;लोहा सिंहद्ध, शुक देव सिंह ‘स्नेही’, डाॅ. मुक्तेेश्वर तिवारी ‘बेसुध’ ;चतुरी चाचाद्ध, आ विजय बलियाटिक के नाम लेहल जा सकऽता। सीवान से प्रकाशित ‘माटी के गमक’ पत्रिका में छोटे लालजी के चिट्ठी के नाम से पाण्डेय रामेश्वरी प्रसाद के पत्रात्मक शैली में हास्य-व्यंग्य के लेख बरिसन ले छपल। ई लेख त हास्य-व्यंग्य के इतिहास में एगो नया आयाम जोड़ देहलस।

मंच के परम्परा कवि सम्मेलन के रूप में त ना रहे बाकिर नाटक के रूप मेें रहे वोही के माध्यम से एह व्यंग्य आ हास्य के प्रस्तुति कइल जात रहे जवना के प्रभाव आज ले कवि सम्मेलन के मंच पर लउकेला बाकिर अफसोस इहे बा जे वोह परम्परा के पोषक लोग हास्य-व्यंग्य जइसन कठिन आ गंभीर बात के लबारी जइसन हलुकापन से जोड़ के एकर स्वरूपे बिगाड़त जा रहल बा। लबार के त मानिए होला झूठ बात बनावे वाला, जवन भोजपुरी क्षेत्र के नाच में लोग के मन बहलावे खातिर कइसहूँ हँसावे के कोशिश करेला। आज के हास्य-व्यंग्य के कवि लोग व्यंग्य के छोड़ के हास्य के प्रधानता देबे लागल आ वोही लबारी के हास्य-व्यंग्य माने लागल । एकर नतीजा ई भइल जे व्यंग्य छूटत चल गइल आ रह गइल खाली हास्य आ ओहू में घटिया किसिम के। जवना के प्रस्तुत करे खातिर ई लोग वोही नाच के लबार के स्टाइल पकड़ल आ ओकरा हाव-भाव के साथे हाथ-मुँह चमकाके कविता प्रस्तुत करे लागल। इहाँ तकले जे भाव आ भाषा में उहे झलक आवे लागल। लोग शब्दन के रेघाऽ-रेघाऽ के प्रस्तुत करे लागल। एह लोग के उद्देश्य खाली हँसावल हो गइल। लोग आपन असल आवाज छोड़ के नेटुआ के आवाज में बोले लागल। नेटुआ के मानिए होला अभिनय करे वाला माने अभिनये प्रधान हो गइल आ कविता गौण। अपना बात में हँसी ले आवे खातिर ई लोग अश्लीलो शब्दन के इस्तेमाल करे लागल आ भोेजपुरी हास्य-व्यंग्य जतने ँचा रहे ओतने नीचा गिर गइल। आ ँच स्तर के हास्य- व्यंग्यकार अपना के हास्य-व्यंग्यकार कहे में लजाए लगले। इहे वजह बा जे लोग आपन प्रतिष्ठा आ अस्तित्व बचावे खातिर दोसरा भाषा के पल्ला पकड़ लेहल, चाहे हास्य छोड़ के खाँटी व्यंग्य के तरफ भागे लागल।

अगर ई लोग भोजपुरी हास्य-व्यंगय छोड़ के भागल ना रहित त जे ई लोग जाके दोसरा भाषा-साहित्य के भंडार भरल आज भोजपुरिये के नू रहित। मन में कतना दुख होता जे ई निम्न कोटि के साहित्यकार वोह लोग के पहचान ना पवले चाहे भोजपुरी जगत वोह लोग के ना पहचान सकल आ सबका के एके लकड़ी से हाँक देहलस। आज उर्दू हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में, भोजपुरिया व्यंग्यकार ‘तंग इनायतपुरी’ अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के तंजो-मजाह के शायर के रूप में जानल जाले, रजा नकवी वाही जेकर मातृभाषा भोजपुरी ह, जे भोजपुरिया हउअन, उर्दू साहित्य के तंजोमजाह के एगो खम्हा बन के खड़ा बाड़न त उहँई नागेन्द्र नाथ ‘बावरा’ हिन्दी आ उर्दू के एगो सशक्त हस्ताक्षर के रूप में आपन पहचान बना लेहले आ पाण्डेय रामेश्वरी प्रसाद जेकरा के भोजपुरी जगत ‘बिरबल’ के उपाधि देले रहे, गंभीर रचनाकार हो गइलन। डा.बालेन्दु शेखर तिवारी हिन्दी के व्यंग्यकार हो गइलन आ पाण्डेय कपिल जे शुरू-शुरू में व्यंग्य के रचना करत रहलन, गंभीर रचनाकार हो गइलन। भोजपुरी हास्य-व्यंग्य के त छिछालेदर हो के रह गइल। आ एही छिछालेदर से रविन्द्र राज हंस के हिन्दी में लिखे के पड़ गइल आ मिर्जा खोंच आ क्रेक्र बेतियावी के उर्दू में।

हमरा त बुझाता जे जौहर सीवानियों एही से हास्य-व्यंग्यकार के रूप में आपन पहचान उर्दू में बनवले। आज एह सबके रचना भोजपुरी में नू लउकित। हँ! त एने ई एगो खुशी के बात जरूर भइल ह जे ‘तंग इनायतपुरी’ के फेर से आपन मातृभाषा मन पड़ गइल बा। एने हाल में उनकर भोजपुरी में एगो सशक्त कविता- संग्रह आइल ह ‘केहू मन पड़ल’। आ ई उमेद बा जे वोह सब साहित्यकार लोगन के आपन मातृभाषा जरूरे मन पड़ी आ इहो जे-‘ कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति’।

जइसन कि हम पहिलहीं कहले बानी जे भोजपुरी क्षेत्र के पानिए में व्यंग्य बा। एह से बढ़ियाँ ई कहल होई जे व्यंग्य-बाण भोजपुरी भाषा के पहचान ह। एह भाषा में व्यंग्य के कई गो भेद बा जवन दोसरा भाषा-साहित्य में ना पावल जाला। जइसे- गाभी, ताना, आनी, बानी, ओल-बोल, टिहुली, उल्टवाँसी, खोबसन, आदि।

इहाँ के आम बोलो चाल के भाषा में दस बात में दू गो बात बिना आभी-गाभी के ना कहाय। रउरा निमन बानी तबहूँ दूगो आनी-बानी आ खराब बानी तब त गाभी के बतिये बा। जवना के बोले के लूर नइखे तवनो उल्टवाँसिए बोली। आज ले कवनो ननद के सुनले बानी जे भउजाई से बिना ताना मरले कवनो बात बतियावत होखे! आ भउजाइयो मोका मिलते ननद पर गाभी मारिए देले।

व्यंग्य-बाण त भोजपुरी जगत के पहचान ह त एकरा से केहू काहे अछूता रही। इहाँ के गंभीरो रचनाकार गंभीर बात कहत-कहत मोका मिलते कटाक्ष करे से बाज ना आवस आ उनका रचना में कहीं-कहीं हास्य-व्यंग्य के पुट मिलिए जाला।

हमरा सब मिला जुला के इहे कहे के बा जे व्यंग्यकार लोग के व्यंग्य के नया परिवेश में ले आके स्वस्थ रचना करे के चाँहीं। अगर ई लोग परिवेश आ स्वस्थता के ध्यान रखले रहे त एह में कवनो संदेह नइखे जे भोजपुरी हास्य-व्यंग्य संसार में आपन सानी ना राखी।

-सुधीर प्रियरंजन ( http://www.sudhirpriyaranjan.blogspot.in/2014/12/blog-post.html?m=1 )

रउवा खातिर:
मुहावरा आउर कहाउत
देहाती गारी आ ओरहन
शब्द के उल्टा अर्थ वाला शब्द

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