भोजपुरी संस्कार गीतों में परिहास, गाली और अश्लीलता

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भोजपुरी संस्कार गीतों में परिहास, अश्लीलता और गालीगीतों का प्रचलन समस्त लोक भाषाओं में मिलता है । यह परिपाटी क्यों, कहाँ और कैसे प्रारम्भ हुई, स्पष्ट नहीं होता । फिर भी, भोजपुरी प्रचलन का व्यापक चिंतन इसे तर्कसंगत बनाने की स्थिति देता है ।

भोजपुरी संस्कार गीतों में परिहास, गाली और अश्लीलता

गाली गीतों की परिपाटी का मनोवैज्ञानिक महत्व है । मानव-मन के अन्दर नौ रस विद्यमान रहते हैं । जैसे बेटी विदाई के गीत करूण रस को उत्सर्जित करते हैं, उसी प्रकार गाली कामुकता को उत्सर्जित करती है । विवाह गृहस्थ और वंश वृद्धि से जोड़ता है । लेकिन इसके पहले ब्रह्मचर्य आश्रम का वैदिक विधान है । इससे अक्सर पुरूष ही जुड़े रहते थे कहीं ऐसा नहीं कि दूल्हा वंश वृद्धि में अनाड़ी ही रह जाये। इस ख्याल से गाली के माध्यम से कामुकता जगाने का नोवैज्ञानिक प्रयास होता है । गीतों की सुस्पष्टता, निर्भीकता, निष्काम प्रमोद, संवेदनात्मक अभिव्यक्ति, तथ्यसाध्य कथन और कर्णप्रिय संवादों को अस्वीकारा नहीं जा सकता भू-गर्भस्थ वास्तु-शिल्पों (खजुराहो का गुप्त शिल्प ) कोणार्क मंदिर की कामुक मूर्तियाँ, दक्षिण भारतीय प्रसिद्ध मंदिरों में समस्त वास्तुशिल्पों की स्थापना और शिव-लिंग पूजन व (कामाख्या मंदिर में) भग पूजन की परम्परा इसी के स्वरूप प्रतीत होती हैं । वात्सयायन के ‘कामसूत्र’ में चौरासी आसनों की व्याख्या अश्लील तथ्यों के सामाजिक उपयोग की महत्ता उजागर करती है ।

प्रकृति चलित व्यवस्था में युग्मन, रति या सहवास का महत्व सृष्टि की दीर्घता, निरंतरता व नश्वरता का प्रतीक है । वस्तुतः अश्लीलता की समस्त प्रवृतियाँ जीवन्त जीवन दर्शन की प्रेरणास्रोत हैं । इसी सिद्धांत का प्रचार वास्तुशिल्प अश्लील साहित्य के माध्यम से जन साधारण में तिरोहित करने का प्रयास किया गया है । इन परिस्थितियों में अश्लीलता या गाली गीतों की परम्परा भाषा के पुरातन होने के दार्शनिक साक्ष्य का प्रस्तुतीकरण भी है।

जगन्नाथ मिश्र जी
जगन्नाथ मिश्र जी
श्रीमती मीना मिश्रा जी
श्रीमती मीना मिश्रा जी

किसी भी रूप में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त सिद्धांतों अथवा साहित्य के लिए प्राक्-कल्पना चिंतन सिद्धांत नियम तथ्य आवश्यक होता है । इनकी कसौटी से गुजरकर ही इसका वास्तुशिल्पिक व साहित्यिक रूप सामाजिक उत्थान का समृद्धि प्रदायी हो पाता है । भले ही वह विशेष स्तर की कीर्ति हो । इन्ही परिवेशों से उदभूत अश्लील साहित्य या अश्लील वस्तुशिल्प भी हैं । अध्यात्मिक चिंतन में संभोग और समाधि को स्वरूप माना गया है, जो वस्तुतः परमानन्द दायक और चर केन्द्रीकरण के कारक है । अस्तु जीव मंडल के लिए सृष्टि विस्तार आनुवांशिक संरक्षण और समस्त जीव मंडल के लिए अमरता प्रदायी है अन्य चिंतनों में सृष्टि ही समस्त विधाओं के निमित्त गुरू है जिसका माध्यम लोक-व्यापी, लोकवाणी, लोकभाषा, लोकसाहित्य, लोककलाएँ, लोक आचरण और लोकचिंतन है इसके लिए प्रकृति के कई लौकिक विकल्प हैं जिनके देखने, सुनने, समझने और प्रायोगात्मक व्यवहार की संवेदना जीवात्मा को सार्थक और सुसंस्कृत मार्ग दर्शन देते हैं।

इस अवसर पर यदि अश्लीलता को भी समीक्षित किया जाए तो वह एक अति उपयुक्त और उपयोगी बिन्दु लगता है । प्राचीन काल में विज्ञापनों का केन्द्र बिन्दु तीर्थस्थल, पर्यटनस्थल, वास्तुशिल्प, मोती शिल्प, विभिन्न रंग रोगन, छायांकन, गायन, प्रहसन, तीज-त्योहार, विधि नियतिक कलायादि ही रहें हैं । यही कारण है कि इनके माध्यम वर्ग, इतिहास, वास्तु शिल्प, संसाधनों का उपयोग लोक प्रचलन और अन्य कलाओं को विज्ञापित करने का प्रयास किया गया है । आदर्श जीवन के निमित्त निर्धारित चार आश्रमों (शैशव, युवा, गृहस्थ और सन्यास) में गृहस्थाश्रम को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है । जहाँ दैहिक अश्लीलता का समावेश आवश्यक बिन्दु है ।

इस आश्य की विवेचना अधिकांश भोजपुरी लोकगीतों, लोक कथानकों तथा लोक अनुष्ठानों में पर्याप्त मिलता है । इस अवसरों पर इसका निर्वाध प्रयोग सही अर्थों में जीवन-मूलक यर्थाथ है । इसके माध्यम से संस्कारों की लम्बी श्रृंखला और व्यापक चिंतन जनित विस्तार या आचरण युक्त, जीवन शरीर एवं पारलौकिक तत्वों के सम्पूर्ण विकास का माध्यम है । अनादि काल से समस्त सृष्टि इनसे अनुप्राणित हो विशिष्टता संग्रहित करती रही है और प्राणिमात्र सम्पूर्ण उत्कृष्ट गुणों को परस्पर समागम सहित एक दूसरे को जोड़ना, गुणसूत्रों  द्वारा करते आये हैं । इस स्वाभाविक आनुवांशिक कलाप में वियोग, मंत्र , गीत और गाथाओं की अहम भूमिका परिलक्षित होती हैं । गर्भाधान संस्कार से लेकर मृत्यु संस्कार यहाँ तक की पारलौकिक श्राद्ध-संस्कार के अनुष्ठानों में ही सांस्कारिक बिन्दुओं का महत्व गीत मंत्र के रूप में ही मिलता है । परिस्थिति चाहे जो भी हो साहित्य या गीतों में अश्लीलता का महत्व मनोवैज्ञानिक प्रभाव और संस्कार संस्कृति में इसका उपयोग, गहन अध्ययन और शोध का विषय है।

शास्त्रों में आनन्द के दो रूप वर्णित हैं, प्रथम शांत्यानन्द और द्वितीय समृध्यानन्द । अर्थात चित में चंचलता का न उठना शांत्यानन्द और नवीनता के प्रति उल्लास ही समृध्यानन्द है । कारण से ही कार्यों में धर्मों का प्रादुर्भाव है इसलिए कारण को भी आनन्द रूप मानना उचित प्रतीत होता है । इन्हीं भावनाओं के अनुरूप आत्मिक उल्लासों में त्वरण के निमित लोकाचार एवं गायन में अश्लीलता एवं गाली का समावेश किया गया है ।

ध्यान दीं : इ आलेख जगन्नाथ मिश्र आ श्रीमती मीना मिश्रा जी के लिखल भोजपुरी किताब कवना बने रहलू ए कोइलार से लिहल गइल बा।

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