जगदीश खेतान जी के लिखल भोजपुरी कहानी आंख

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प्रयाग विश्वविदयालय यूनियन पत्रिका 1962 मे हिंदी मे प्रकाशित कहानी का भोजपुरी अनुवाद।।

हम येगो आन्हर मंगन हईं जे आपन पेट जियावे खातीर इलाहाबाद के गलियन और बजारन मे भीख मांग के अपने परिवार के कइसो जिआइलां।ई धंधा ठीक ना हवे बाकीर हम अपने आंखीन से लाचार हईं, नाहीं त दूसरे के आगे हाथ पसारल आ दर-दर के ठोकर खाईल के के नीक लागेला।केहू के नाही।हम हूं के नीक ना लागेला।

अपने देश मे मंगन के कौन कमी बा ?हर गांव हर शहर,हर टीशन आ बसटीशन मे हमार बिरादरी मिली।रेलगाड़ीन मे आ बसों मे मिल जईहं।मंदिर मस्जिद के आगे भी मांगत मिल जईहं।हिंदू आ मूसलमान मिल जईहं।हर जात आ हर सूबा के मंगन मिलीहं।लरीकवो मीलीहं आ बूढो जवान मिलीहं।न जाने केतना तरह के मंगन मिलीहं।हम अन्हरन मे आव वाला मंगन हईं।

आखिर मे अपने देश मे मंगन के संख्या येतना ढेर काहें बा?इहां के लोग धर्मभीरु आ अन्धविश्वासी हवे।फेर जो भीख देवे वालन के कमी ना रही त लेवे वालन के का कमी रही।आन्हर,लूल आ बहिर भिखमंगन ले नाही बा। जवान आ मुस्टंड मंगन भी बान।येही मे कुछ साधु आ सन्यासी के ढोंग रचा के मांगतान।बुझाता की साधु आ सन्यासी के ढोंग रचा के ई समाज के बड़ा उपकार करेलं।कुछ आन्हर आ लूल के ढोंग रचावेलं आ भीख मांगे के नया-नया तरकीब लगावेलं।येसे हमरे जईसन के हक मारल जाला जे मजबूरी मे आन्हर होखले के नाते भीख मांगेला।येही ढोंगीयन के कारन हम जईसन मंगन के भी ताना आ गारी सुने के पड़ेला।बहुत जने हमहूं के ढोंगी समझेलं।अभहीन कलीहें के बात बा।हम पार्क रोड से अपने घरे आवत रहलीं त दू जने येही तरह के बात करत रहलं ओमे से येगो अपने संघतीया से कहत रहल कि “देख ओ मंगना के।केतना नीमन अन्हरे के नकल कईले बा।येही नकली भिखारियन के कारन आपन देश पछुआत जात बा।” ई सुन के गुस्सा से हमार करेजा जर गईल।बाकी हम का करतीं।

हम ना त जनम से आन्हर रहलीं ना जनम से मंगन।आन्हर भईले के बाद हम भीख मांगे लगलीं।मजबूरी सब करवलस।हम इहां पुराना कटरा मोहल्ला मे पैदा भईलीं।आज हम जौने मकाने मे रहीलां उ हमरे बपसी के बनवावल ह।मकान का बा? येगो कोठरी आ दलान बा।देवार, माटी के गारा से बनल बा आ छत खपरैल के बनल बा।बरसात मे कहीं- कहीं से चुअबो करेला।

हमार बपसी मेहनत मजूरी करत रहलं।हम चार बरीस के भईलीं त हमके आ माई के असहाय छोड़ के ये दुनिया से दूर चल गईलं।माई बरतन मास के आ मजूरी धतुरी क ईके हमार पेट पाले लागल।हम जब सात बरस के भईलीं त स्कूल जाये लगलीं।फीस हमार माफ हो जात रहल आ माई पुस्तक आ कापी कहीं से मांग के ले आवत रहल।दरजा आठ पास कईके मजबूरी मे पढाई छोड़ देलीं आ हमहूं माई के साथे मजूरी करे लगलीं।अब हम अठारह बरस के हो गईलीं आ माई के पचासा पूरा हो गईल।
हमके कमात देख माई हमार बियाह कई देलस।माई बुझाता हमार बियाह देखे खातीर रूकल रहल।हमार बियाह खतम होत आ हमके अपने गोड़े पर खड़ा होत देख माई हमसे आ सगरो दुनिया से मुंह मोड़ लेहली।

हम एक बेर फेर रोये लगलीं आ कराह उठलीं।माई के मरले के दुख सबके होला। हमहूं के भईल। माई के ममता केतना गहीर आ माई के आसरा केतना बड़ होला येके उहे समझ सकेला जेकर बाप बचपन मे बेसहारा छोड़ के चल बसल हो।ओइसे त हम जवान हो गईलीं बाकी ओसे का।माई के परेम त सबसे अलग होला। माई अपने जवान बेटन के भी लरीकन लेखां बूझेली।

जमाना जो दिल मे दर्द पैदा करेला त समय बीतले के साथ कम्मो होत जाला।हमरो दिल के दर्द आ माई के विछोह के दुख धीरे-धीरे कम होत गईल।हमार मेहरारु सोनवा भी हमार दर्द कम कईले मे हमार सहायक बनल।ओकरे उपस्थिती आ प्रेम से हमके नया चेतना मिलत गईल। नाम ओकर सोनवा रहल आ सोना लेखां चमकतो रहल।धीरे धीरे हमरे बियाह के पांच साल बीत गईल।सोनवा के रुप आ खरापन मे कौनो अंतर ना आईल।येही बीच हमरे येगो छोकड़ा पैदा भईल।ओकर नाम हम रामू रखलीं।जब चार बरस के भईल त ओके स्कूल भेजे लगलीं। हम हमेशा सुख-दुख के झूला मे झूलत रहलीं।पुरनका घाव भरले नाही रहल कि हमरे उपर फिर बर्जपात भइल।ये साइत हम येगो मकान बनवले मे मजूरी करत रहलीं।एक दिन काम कईले मे अचानक हमार गोड़ छते पर से बिछलाइल आ हम पीठी के बले जमीनी पर आ गईलीं आ गिरते हम बेहोश हो गइलीं।हमके तुरते अस्पताल पहुंचावल गईल।जहां जहां चोट लागल रहल मरहम पट्टी कईल गईल।अंखियो पर पट्टी बांधल गईल।जब हमके होश भईल त डाकटर बतवलस की पट्टी अठवें दिन खुली आ तब्बे हम इहां से जा सकेलीं।हम अठवां दिन के अगोरे लगलीं।

सोनवा रामू के साथे रोज अस्पताल आवत रहल। खयको बनाके ले आवे।जहां हम काम करत रहलीं सोनवा काम करे लागल नाही त गुजारा कइसे होत।अब ले मुशकिल से हम दू-तीन सौ रुपया बचवले रहलीं।सोनवा के मजुरीओ कम मिलत रहल। औरत जो रहल।औरतन के मरदन से कम मजुरी मिलेला ई सबके पता होई।कइसो कइसो आठ दिन बीत गइल।केवल आंखी के पट्टी खुले के बचल रहल।अब आंखी के पट्टी खोलाये लागल। आंखीन के पट्टी खलते हम घबरा गइलीं ।हमरे आंखीन के आगे अब्बो अन्हार रहल। हम डाकटर से कहलीं कि हमके देखात नाही बा।आखीर का बात बा? डाकटर का जवाब देत?हम आपन आंख गंवा देले रहलीं।सोनवा रोये लागल।रमुओ रोवे लागल ।सबके रोअल देख हमरीयो आंखीन से आंस झरे लागल।असली दुख त हमही के सहे के रहल।

हमन के रोअल-धोअल देख डकटरवो डांंट के बोलल “ई अस्पताल हवे। रोवे धोवे के जगह ना ह।दूसरे मरीजन के येसे कष्ट होला।”
डाकटर ठीके कहत रहल।हम लोगन के चलते दूसरे मरीजनके कांहे तकलीफ उठावे के पड़े।हमके दिन याद पड़ल जब येगो लड़ीका अस्पताले मे रोवत रहल आ ओकर रोआई देख-सुन के हम झुंझलाये लागल रहलीं।फेर आज तीन जने के येके साथे रोवल-धोवल ?हमरे दिल के कोने मे बइठल मानवता जोर मरलस हम चुप हो गइलीं।रामु आ सोनवो के चुप करवलीं।उठ के खड़ा भइलीं आ टो-टो के सोनवा के हाथ पकड़ के कहलीं कि अब चल के घरे चलल जां।हम सोनवा के आ रमुआ के साथे घरे पहुंच गइलीं आ सोनवा से कहलीं “तनी हमार लठीया दे दे कोनवां मे खड़ा होइ।” लाठी हाथे मे लेके हम विचार करे लगलीं की ई उहे लाठी ह जौन हमार शान बढावत रहल।आज से उहे हमार सहारा बनी।पहीले लाठी हमरे सहारे चलत रहल।अब हमके येकरे सहारे चले के पड़ी।

आंख न रहले पर हमके आपन भविष्य स्पष्ट दिखाइ देवे लागल।चारो ओर अन्हार बुझाये लागल।सोचे लगलीं कि बिना आंखी के रोजी-रोटी कइसे चली।अन्हारे ई दिनवा कइसे बीती।अबले बचल खुचल रुपयवो खतम हो निअराइल।आज के खाये भर के आटा-दाल आ नमक बचल रहल।काल का होइ ई सोच-सोच के हम कांप उठलीं।सोनवा भला कहां ले काम करी। काम करी त खाना के बनाई? येगो मेहरारु के मजूरी कइले से भला तीन-तीन आदमीन के रोजी कइसे चली।भला सोनवा इ सब कुछ अकेल कइसे कर पाई।हमरे अंतरमन मे ई सवाल उमड़-घुमड़ के पैदा होखे लगल।

सोनवा के रोजाना चार रुपया मजूरी मिलत रहल।भला चार रुपया मे तीन जने के गुजारा कइसे होई।फेर सूनसान कोठरी मे बिना आंख के समय काटल केतना कठिन हो जाई।एक-एक पल जइसे पहाड़ बुझाये लागल।ई कहावत लोग ठीके कहेला कि बइठले से बेगार नीक।कामे मे बझल रहले से समय भी मजे मे कट जाला।फेर हमरे अइसन काकाजी आदमी के हाथ पर हाथ धई के बइठल भला कइसे सुहायी।बाकी मजबूरी सब करावेले।कहां हम मजूरी कइके सबके पेट पालत रहलीं । अब मेहरारु के कमाई से हम सबके गुजर होता।ठीके कहल जाला कि कब्बो नाव गाड़ी पर आ कब्बो गाड़ी नाव पर।बाकी चार रुपया मे पूरा परिवार के पेट भला कइसे भरत?एक त चिंता आ दुसर आधा पेट खयका से हमरे मे परिवरतन आईल शुरु हो गइल।कपड़ा गंदा रहे लागल आ फाटे लागल।चैहरा पर दाढी बढ गईल।ये जीयले से त मुअल ठीक बा।पड़ोसी व्यंग बाण छोड़े लगलं।लोग कहे लागल ” ये मुस्टंडा के देख ,आन्हर हो गइल बा त का भईल?हाथ गोड़नीमने बा फेर भीख कांहे न मांगता। “हमरे दिल मे ई बात घर कई गईल। ठीके त कहत बा।हम तब्बे तय कई लेहलीं कि अजुये से हम भीख मांगे के धन्धा शुरु कई देब।रमुआ हमरे बगलीये मे बईठल रहल।सोनवा मजूरी करे गईल रहे।हम हाथे मे लाठी ले के खड़ा हो गईलीं आ रमुआ के हाथ पकड़ के कहलीं “बेटा, उठ आजु से हम तोरे संगे भीख मांगल शुरु करब।” आ हम घर से निकल पड़लीं। जात के हरखू के घरवालन से कही देलीं कि सोनवा आई त कही दीह कि हम संझा ले आ जाईब। हमार कौनो चिंता न करी।

हमके अजीब लेखां अनुभव होखे लागल।शरम के मारे भीख मांगे के हिम्मत ना पड़त रहल। केहू जान पहचान वाला हमके भीख मांगत देखी त भला का कही।एक बेर त मन मे आईल कि लौट चलीं लेकिन तब्बे सोनवा के मासूम चेहरा हमरे आंखी के सामने कौंध गईल और लोगन के व्यंगबाण हमरे काने के छलनी करे लागल।हमरे मन के अंदर से हिम्मत बंधावे वाला आवाज आईलः “तोहार दाढी बढ गईल बा ।तोहरे चेहरा और शरीर मे बहुत परिवरतन हो ग ईल बा।भला के तोके चीन्ह पाई।”हमके हिम्मत आ गईल और लाज शरम कोसो दूर भाग गईल।हम रमुआ से कहलीं कि बेटा आनंद भवन के पास चल।उहां बइठले पर आनंद भवन के सैर करे वालन से कुछ पइसा मिलीये जाई।

आनंद भवन के आगे हम येगो चादर बिछा के बैठ गईलीं।बैठले के बाद हम रमुआ से कहलीं “बेटा ते स्कूल जो। स्कूल से वापस अईह त हमहु के लिअवले जइह।हम ना चाहत रहलीं कि हमरे साथे-साथे रमुआ भीख मांगे के धंधा करे लागे।हम ओके आदमी बनावल चाहत रहलीं।रमुआ स्कूल से वापस आईल आ हमे वापस घरे ले गईल।येतने समय मे हमके पांच रुपया ले मिल गईल।सोनवा ई काम करे के मना कईलस लेकिन हम ना मनलीं। रोज भीख मांगे के हमार दिनचर्या हो गईल। आनंद भवन के आगे चादर बिछा के बैठ जाईं और जे आवे ओकरे आगे हाथ पसार के गिड़गिड़ाये लागीं।लज्जा आ झिझक धीरे-धीरे कम होत गईल।अब ये पेशा के सगरो रंग-ढंग हमके मालूम हो गईल।पहिले दिन त पांचे रुपया मिलल रहल बाकी जईसे-जईसे ये पेशा के ढंग लूर के जानकारी होत गईल ओईसे हम ये धंधा मे पारंगत होत गईलीं आ भीखियो ज्यादे मिले लागल।अबहीन कल जौन पईसा मिलल रहल ओके गिनलीं त छब्बीस रुपया निकसल।अब आनंद भवन से कटरा आ कर्नेलगंज जाये खातीर रमुआ के भी जरुरत ना रहल।रस्ता मे पड़ेवाला हर खंभा, हर मोड़ और मकानों के हमार हाथ आ गोड़ मिलके साध ले ले रहल।

अब हमके माघ मेला के अगोरा रहल और धीरे धीरे उहो नगीचे आवे लागल।हर साल माघ मेला मे आंखी के दवाई आ आपरेशन के कैम्प लागत रहल।सुनाईल कि असो भी कैम्प लागी। इहो पता लागल कि आपरेशन आ दवाई के मिला के कुल दू सौ पचास रुपया लागी।खाना फ्री मे मिली।बनारस से कौनो नामी डाकटर आवे वाला बा।अब ले हम सवा दू सौ रुपया बचा ले ले रहलीं।मेला जबले शुरु होई तीस चालीस रुपया और बचा लेब।

अगोरत-अगोरत माघ महीना भी आ गईल।मेला लागे लागल।आंखी के आपरेशन के कैम्प भी लाग गईल। पहीलहीं दिन जा के हम आपन आंख देखवलीं।डाकटर बतवलस कि आंख ठीक हो जाई।आपरेशन खर्च जमा करे के कहलस आ आपरेशन खातीर दूसरे दिन आवे के कहलस।हम आपरेशन खर्च जमा कई के तेजी से चलके घरे पहुंचलीं। लागल की हाथे गोड़े मे पांख जाम गईल होखे।सोनवा के खुशखबरी सोनवलीं त कुछ बोलल नाही।हम भिनसहरा के अगोरे लगलीं।रात मे रही-रही के नींद उचट जा।सपना मे देखलीं कि हमार आंख वापस आ गईल बा।सबेरे नीद खुलल त सोनवा कहलस “बहुते तेज बारिश होता।मेला भला कईसे जईब?”

हम मन मे निश्चय कईलीं कि काल चल चलब।एक दिन मे भला कौन फरक हो जाई। लेकिन भगवान के कुछ और मंजूर रहल।ओही दिन सांझ के हमके बोखार चांप देलस।बोखार मियादी रहल आ ओकर पिंड बीस दिन बाद जा के छूटल।तबले मेला उठ गईल रहल आ आंखी के कैम्प भी उठ गईल रहे आ दवा-दारु मे हमार रुपयवो उठ गईल रहे।फेर उहे गली-गली के ठोकर खाईल आ लोगन के आगे हाथ पसारल हमरे भाग मे लिखल रहल।लेकिन हमहूं हिम्मत ना हरलीं काहें कि ई भीख मांगे के धंधा से हमके नफरत जो रहल।हम फिर भीख मांग के पैसा इकटठा कईल शुरु कई देलीं। आ आठे-नौ महीना मे हम उम्मेद से ज्यादे पैसा जुटा लेहलीं काहें कि हमके अपने धंधा के सब गुर मालूम हो गईल रहे।जाड़ा शुरु भईल आ हम आपरेशन करावे खातीर बनारस जाये के निश्चय कई लेलीं आ एक दिन सोनवा आ रामू के लेके प्रयाग स्टेशन पहुंच गईलीं।बनारस जाये वाला गाड़ी आईल आ ओमे जाके हम लोगन बैठ गईलीं।गाड़ी चल देलस।सोनवा आ रमुआ एक कोने मै बैठा के हम गावे लगलींः-

भगवान दो घड़ी जरा इन्सान बन के देख।
धरती पर चार दिन जरा मेहमान बन के देख।

ई गवले पर कुछ पइसो मिलल।ई गीत हमके बानो नाव के मेहरारु सिखवले रहल।उहो भीख मांगे के धंधा करत रहल।रस्ता भर डब्बा बदल-बदल के भीख मांगे के काम जारी रखलीं।हम ई ना चाहत रहलीं कि रुपया के कमी के कारण कौनो अड़चन आजा।बनारस अवते हम उतर गईलीं आ शहर के ओर चल देलीं। सबसे पहिले हम रहे खातीर बीस रुपया महीना के हिसाब से येगो कोठरी भाड़ा पर लेहलीं आ सोनवा के साथे ले अस्पताल पहुंच गईलीं। डाकटर जांच कईलस आ कहलस “घबरईले के कौनो बात ना बा।कल्हे आपरेशन हो जाई।सब तैयारी कईके कल अईह।”

दूसरे दिन ठीक समय से हम अस्पताल पहुंच गईलीं आ भरती हो गईलीं।जांच होई गईल रहे।ओही दिन नीमने आपरेशन हो गईल और आंखीन पर पट्टी बंधा गईल।सोनवा रोज हमरे खातीर खाना बना के ले आवे।दस दिन बाद पट्टी खुले के रहल। फेर बेचैनी बढे लागल आ समय बीतावल पहाड़ बुझाये लागल।लेकिन ये बेचैनी मे भी खुशी छिपल रहल।रही-रही के खुशी के लहर उठे लागल।एक-एक दिन बीतत नव दिन बीत गईल। सांझ के समय रहल।सोनवा हमरे पास बैठल रहल।डाकटर साहब बतलवन कि काल सबेरे पट्टी खोल दिहल जाई।सोनवा हमसे कहलस “मन न लागे त आज रात रामू के अपने लगे रख ल। “हम कहलीं की “इहे ठीक रही।तोहके डर त ना लागी?

“डर का लागी?का अब्बो हम बचा बानी का?सोनवा हंस के जवाब देलस।हम सोनवा के ओर से निश्चिंत हो गईलीं।सोनवा चल गईल आ रमुआ हमरीये लगे रही गईल।तब तक दीवाल घड़ी मे सात के घंटा बजल।हम करवट बदल-बदल के सुतले के कोशिश करे लगलीं।लेकिन सब कोशिश बेकार भईल।करवट बदलत- बदलत दस बज गईल।अस्पताल मे सूनसान हो गईल रहे।चहल-पहल खतम हो गईल रहे लेकिन हमार बेचैनी बढे लागल।हमरे मन मे विचार आईल कि नियत समय से कुछ घंटा पहिले पट्टी खोल देले से भला का नोकसान होई।हम काफी सोच-विचार के बाद हम अपने आंखी पर से पट्टी खोलल शुरु कई देलीं।एक बेर त पट्टी खोलले पर अन्हार बुझाइल रहे बाकी आज पटी खोलले पर आंखी के रोशनी वापस आ गईल।

पहिले त कुछ धुंधलाह लागल फिर एक-एक चीज साफ देखाये लागल।रमुआ बगली मे सूतल रहल।हमरे खुशी के ठेकानान रहल।हम सोचलीं कि अब्बे चल के सोनवा के हैरत मे डाल देब।रमुआ के जगवलीं आ खुशी से चहक के कहलीं “हमार आंख वापस आ गईल।अब हम देख सकीलां।चल अब घरे चलल जां।” रमुआ हमरे ओर अचरज से देखे लागल।हो सकेला ई हमरे आंखी के भरम रहल होखे कांहे कि बहुत दिन के बाद रमुआ के हम देखले रहलीं।हम लाठी उठा लेलीं।सहारा लेवे खातीर नाहीं बल्कि सहारा देवे खातीर।लाठी के अब हमरे इशारा पर चले के बा।बाहर गेट पर चौकीदार स्टूल पर बैठल-बैठल ओंघात रहे।हम ओकर आंख बचा के दबे पांव रमुआ के साथे अस्पताल से बाहर निकल अईलीं। रमुआ आगे-आगे चल के रस्ता बतावत गईल।हमके भला रस्ता कहां से मालूम होत?हम त बस एक बेर ये रस्ता से सोनवा के साथे आईल रहलीं और उहो तब जब हम आन्हर रहलीं। रमुआ येगो घरे ओर इशारा कईके कहलस “ रहल आपन घर।”

घर देखते हम दौड़ गईलीं कांहे की ई समाचार हम जल्द से जल्द सोनवा के सुना के ओके अपने खुशी मे भागीदार बनावल चाहत रहलीं।दरवाजा के पास आके एकाएक गोड़े मे ब्रेक लाग ग ईल।अंदर से लालटेन के मधिमाह रोशनी दरवाजा के पल्लन के बीच से छन-छन के आवत रहल।हमरे मन मे विचार पैदा भईल कि तनी देखीं ये समय सोनवा का करत बीया।हम सोचत रहलीं कि अबले सुत गईल होई।दुनो पल्लन के बीच के सुराख मे हम आपन आंख जमा देहलीं।अंदर के नजारा देख के हम सकते मे आ गईलीं। सोनवा के बगली मे येगो गबरु जवान लेटल रहल आ सोनवा से हंस-हंस के बतियावत रहल।त का येही बदे सोनवा रमुआ के हमरे पास रखलस।हम अईसन नजारा भला कईसे देख सकतीं।हम सुराख से आंख हटा लेलीं।हम मिलावटी सोनवा लेके भला का करतीं।रमुआ हमरे बगलीये मे ठाढ रहल।हम रमुआ से कहलीं ” ये बेटा चल डाकटर के अंखीया वापस कईले आईं। “आंख वापस मिलले से अनेरे दिल के तकलीफ भईल।ई आंख ना रहल तब्बे नीक रहल।

रमुआ कहलस “पिताजी ई का कहत बाड़।ई अंखियो भला कहीं वापस होला?”

तब तक कौनो घंटाघर से बारह बजले के घंटा सुनाईल।हम रमुआ से कहलीं- “चल वापस इलाहाबाद चलल जाई।” मगर हमरे साथे चले के तैयार ना भईल कांहे कि आखीर मे अब्बो बचवे न रहल आ हर बचवन के लेखां अपने माई से ज्यादे प्यार करत रहल। दरवाजा खोलावे चलल आ हम टीशन के राह पकड़लीं आ जौन पहिला गाड़ी मिलल ओसे वापस चल देलीं।

कहल जाला कि आंखी के आईल,जाईल, उठल आ बैठल खराब ह बाकी हम कहब कि आंखी के रहल ही सबसे खराब ह।न आंख वापस मिलत न ई दिन देखे के पड़त।

लेखक: जगदीश खेतान

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