बिरहा गीत वास्तव में विरह गीत हैं : एस डी ओझा

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बिरहा गीत वास्तव में वे विरह गीत हैं, जो कि विशुद्ध रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश व पश्चिमी बिहार की माटी से निकले हुए हैं, आज तक स्त्रियों के हीं बिरह गीत होते थे औरतें गाकर अपनी बिरह -व्यथा व्यक्त करती थीं। ” मोहे जोगिनी बना के कहां गइले रे जोगिया “या “आधी आधी रतिया के बोले कोइलरिया कि चिहुंक उठे गोरिया , सेजरिया पे ठाड़ी “आदि अनेकों ऐसे विरह गीत हैं , जो नारी अंतर्मन की विरह व्यथा को उजागर करती रहीं हैं। तभी 19 वीं सदी में बिरहा धूम धमाका करता हुआ पुरूष विरह व्यथा को कहने आ पहुंचा, यह यहां के लोगों का एकलौता ऐसा गीत है , जो केवल पुरूषों का विरह दर्शाता है. जब इस मिट्टी से उखड़े लोग रोजी रोटी की तलाश में प्रवासी बनकर ,हाड़ तोड़ मेहनत कर शाम को एकजुट हो बैठते हैं तो घर परिवार की याद सताने लगती है,  ऐसी हालत में बिरहा गीत स्वत: हीं होठों पर बरबस आ जाते हैं – “चटनी रोटी हम खइबै , दुबई नाहीं हम जइबै । ”

एस डी ओझा जी
एस डी ओझा जी

बिरहा गीत की शुरूआत

बिरहा गीत की शुरूआत अहीर चरवाहों ने की, वे शुगल के तौर पर गाते थे -” छोट रहनी त बकरी चरवनी, पियनी बकेनवा के दूध “, अहीर लोगों का यह गीत कब प्रवासियों का बिरह गीत बन गया , पता हीं नहीं चला . फिल्म गोदान में बिरहा गीत की बहुत हीं सुंदर प्रस्तुति की गई है – ” पीपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा कि हियरा में उठत हिलोर , पुरूआ के झोंकवा से आयो रे संदेशवा कि चलु आजु देशवा की ओर ” . प्रवासी मजदूरों के लिए विदेशों में नौकरी करना सिर हथेली पर लेकर चलने का सौदा है। वे ँची ँची अट्टालिकाएं बनाते हैं . कई बार काम करते समय इन्हीं अट्टालिकाओं से गिर वे जमीन को शहतूत की मानिंद रंग देते हैं . कम्पनी थोड़ा बहुत उनके घर वालों को मुआवजा देकर अपने कर्तब्य की इतिश्री समझ लेती है . ऐसे में दुसरे प्रवासी विरहा गीतों के माध्यम से अपना दु:ख प्रकट करते हैं .एक दुसरे को सांत्वना प्रदान करते हैं।

चौथी कक्षा की बात है, हमारे साथ पढ़ते थे सातादेव
(सत्यदेव ). जब कभी बिरहा की बात होती तो वे दोनों कान में उंगली डालकर गाना शुरू कर देते ,” सात रतिया सात दिनवा , भईल बा झपसवा . ओही में बियाईल बिया , झिंगुर के गईया .” आगे की पंक्तियां मुझे याद नहीं हैं लब्बोलुआब यह कि हथिया नक्षत्र चढ़ गया है , जिसमें सात दिन व सात रात पानी बरस रहा है, ऐसे में झिंगुर की गाय ने बच्चा दिया है, अब गाय को गुड़ व पखेव ( वेसन की कढ़ी ) खिलाने पिलाने के लिए कहां से लाया जाय – यह परेशानी का सबब है . यहां पर यह बिरहा विरह गीत नहीं है. यह यहां झिंगुर की परेशानी इंगित कर रहा है, इस प्रकार बिरहा देश काल परिस्थिति के अनुरूप अब अपना स्वरुप बदलने लगा है।

अब बिरहा में सम सामयिक बातें घर कर गईं हैं . इसमें सास बहु के कुत्ते बिल्ली जैसा वैमनस्य , ननद भावज की चुहलबाजी भी नजर आने लगी है . और तो और इसमें दहेज प्रथा पर भी कटाक्ष किया जाने लगा है . प्रमुख बिरहा गायक बलेश्वर यादव ने क्या गजब कटाक्ष किया है – ” बिकाई ए बाबू बी ए पास घोड़ा” अब यह केवल पुरुष बिरह गीत न होकर नारी बिरह व्यथा का भी पर्याय बन गया है। बालेश्वर यादव ने नारी बिरह व्यथा का बड़ा हीं सुंदर चित्रण किया है। बलिया बीच गुम हुए साजन को देश विदेश में नायिका ” नगरी नगरी द्वारे द्वारे ढूंढू रे सांवरिया ” की तर्ज पर बेइंतिहां खोजती है .अंत सुखद रहता है। बलमा मिल जाते हैं -बलिया के रतनपुरा गांव में . आज भी यह बिरहा भोजपुरी माटी में गूंजता है – ” बलिया बीच बलमा भुलाईल सजनी .” बिरहा में अब पौराणिक संदर्भ भी आने लगे हैं। फिल्म ” मुनीम जी ” में सचिन देव बर्मन ने हेमंत कुमार से एक बहुत हीं प्यारा बिरहा गवाया है – ” शिवजी बियाहन चले पालकी सजाय के “. बिरहा में हारमोनियम , ढोल व करताल मुख्य वाद्य यंत्र होते हैं।

पांच दशक पहले गुरू पत्तू ने बिरहा को आधुनिक रुप दिया था। गुरू पत्तू विल्कुल निरक्षर थे . वे विरहा बनाते , लेकिन लिखवाते किसी पढ़े लिखे शागिर्द से . उनके सैकड़ों शिष्य हुए . इन शिष्यों के अलग अलग आखाड़े (गुरू घराने ) हुए . इन आखाड़ों का आपस में प्रतियोगिताएं होने लगीं , जिसे बिरहा दंगल नाम दिया गया . इन आखाड़ों में परस्पर वैमनस्य भी होने लगा है. कई बार बात गाली गलौज से हाथा पाई तक पहुंच जाती है. भोजपुरी बिरहा अब ग्लोबलाइज हो गया है, यह भोजपुरी क्षेत्र से निकल भारत के कोने कोने में पहुंच गया है . भोजपुरिया लोग जहां जहां गये , बिरहा उनके साथ साथ चलता रहा। अब भोजपुरी बिरहा विदेशों में त्रिनीडाड , माॅरीशस , फिजी , सूरीनाम तक पहुंच गया है। इतना सब होते हुए भी इतना तो जाहिर है कि बिरहा की आत्मा अब मर चुकी है . बिरहा में विरह अब रंचमात्र भी नहीं है, अब यह मात्र पंचमेल खिचड़ी बन के रह गया है।

रचनाकार : एस डी ओझा जी


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