रामचन्द्र कृश्नन जी के लिखल भोजपुरी कहानी दरद

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माघ के महिना किरिनि लउकते ना रहें, मारे सर्दी के देहिं छोलात रहें। राति के एक पहर बित गइला के बाद रामकली के माई खटिया पर देहि धइली, आजो उ कुछ खइले पिअलें ना रहलि। अपने मालिक के अगोरत अगोरत जब उ ना अइलें, ते निहटा मारि के खटिया धइलि। आंखि ते लगते ना रहें,मारे चिन्ता आ फिकिर के गुनना में परल रजइए के भीतर टुकुर टुकुर ताकति रहली कि दुआरि से केहूं के बोलवला के अवाजि आइल।

ए रामकली के माई —ए रामकली के माई, रामकली के माई मारे रिसि के बुत्त हो गइली जगतें रहली। लेकिन बोलें के तनिको तिरखा नाई करें।लेकिन फेर सोचें लगली कि एह तरह से रिसि कोह कइला से काम कइसे चली ,आपन बिअहुता परानी हवें इ हमरे भगवान के समान बाटें, फेर मनें के मारि के उठली लेकिन जबान नाई मानल, मुहें से कुछ उटपटागं निकरी गइल कहली?

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का रामकली के माई , रामकली के माई कइलें बाट ,तुहार घरे अइलें के इहे जूनि हे,कुर्सी भर जनमवलहि के रहल ह कि खइलहूं के कवनों उपाय है, दिन भर घूमि के तू जुआ खेलब दारू पिअब आ अद्धि राति के आकें नरिअइब ,ए रामकली के माई ,ए रामकली के माई,तुहरे येह चालि से टोला महल्ला के जीं अनुसाइन हो गइल बा ।

रामचन्द्र कृश्नन जी
रामचन्द्र कृश्नन जी

जब एतना रमायन रामकली के माई सुनवली त रामकली के बाबू क जबनिए सट्ट होगें ।आ उ एगो लमहर सासिं लिहलें आ कहलें? ये रामकली क माई तुहार निहतार हमरिये छाहें होत बा आ तू हमके अइसन बाति कहति बाटूं।मालूम नइखें रामकली के बाबू के इस जबान रहल कि मुरदही गडासी के घाव, रामकली के माई क देहिया इ बतिया सुनते छोला गइल आ उ मारे रिसि के बुत्त हो गइली आ कहली।

अरे लाजों जो लगत ये मोघिअऊ तुहरे साथे हमतें आपन देहिया लाई डरली फटही लूगरी में जिनगी बिति गइल चार ठे बाल बच्चा हवें करेजा पर बज्जर अइसन बिटिया सयान भइल बा दारू के पिआई आ जुआ के खेलाई से निस्तार होई । तुहरे साथे हमार जिनगी बिरिथ हो गइल आ अबहिन मुंह चलावत बाटअ अरे जो करिखा पोति के कही बहि जइत।

‌रामकली के माई के ई जबान रामकली के बाबू के गोली अस लगल आ उ सोचे लगलें कि मउति कबूल लेकिन मेहरारू के अनकी भनकी नाई कबूल , लेकिन करें त ‌ का करें जब सोचे समझे के बेरा रहल त जुआ आ शराब के मजा उडवलें , अंधाधुंध लइका जनमवलें अब हुसा न सहें त का कपार फोरें ।

रामकली के बाबू पांच बेटी आ तीन बेटा के खरचा से परशान रहें न केहूं के पेट भर खाना मिलें न शुद्ध कपडा ,पढला लिखला क बाति सपना रहें मेला ठेला के दिन जब लइके छरिआ त टोला महल्ला के जीं अनुसाइन क दें।

रामकली के माई जिनगी भर फटही लूगरी में जिनगी गुजरली । अब रामकली के बाबू के धीरे धीरे ग्यान होवे लगल की जिनगी में बड़ी भूल हो गइल जो एतना लइका नाई जनमल होतें ,जुआ आ दारू के लत्ति नाई लगल होत त हमरो जिनगी में सुख के बिहान हो गइल होत । आ कुलि लइका पढि लिखि के हुसिआर हो गइल होतें लेकिन अब पछिताए होत का जब चिड़िया चुग गइल खेत।

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