सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’ जी के लिखल १४ गो बारहमासा

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नीचे दिहल बारहमासा सिपाही सिंह श्रीमंत जी के ‘थरूहट के लोक गीत’ से लिहल गइल बा। किताब में बारहमासा भावार्थ के साथे बा।

चुआ चन्नन अंग लगाई कामिनी करत सिंगार

चुआ चन्नन अंग लगाई कामिनी करत सिंगार।
जहिया से ऊधो मधउवापुर गइले, बीती गइले मास असाढ़,
कन्हैया घर ना आवे जी।।१।।
सावन री सखि, सरब सुहावन रिमझिम बरसत देव,
एक मोर बीझेली रेशम के चोली, चीरवा धूमिल होइ जाइ,
कन्हैया घर ना आवे जी।।२।।
भादो री सखि, भरेली मेधावन, दूजे अन्हरिया के रात,
लवका जो लवके, बिजली जे तड़के, केकरे ओसरवा होइबों ठाढ़,
कन्हैया घर ना आवे जी।।३।।
कुआर ही री सखि, कुँअरा विदेसे, बिजुबन कुंहरत मोर
मोरवा के बोली सूनी हिया मोरे साले, सूनी जिया अब फाटे,
कन्हैया घर ना आवे जी।।४।।
कातिक री सखि, लागी पूर्णवांसी, सब सखि गंग असीलान,
सब सखी पेन्हे पाट पीतम्बर, हम धनि लुगरी पुरान रे,
कन्हैया घर ना आवे जी।।५।।
अगहन री सखि, गोरी गइये दहो दुख सहलो ना जाई, इहो दुख सहो मोरा कुबरी सवतिया, जिन कान्हता रखली भोराइ,
कन्हैया घर ना आवे जी।।६।।
पूस हीं री सखि, परत फुहेरी, भींजत लामी-लामी केस,
एक मोरे भींजेला रेशम के चोली, नैना भींजेले अनमोल रे,
कन्हैया घर ना आवे जी।।७।।
माघ हीं री सखि, पड़े निजु ठार, सब सखी भराई
हमरो पिया रहितें, भरउँती, खेपती में मघवा के जाड़ रे,
कन्हैया घर ना आवे जी।।८।।
फागुन की सखि रंग महीने, सब सखी अबीर घोराई,
हमरो पिया रहतें, अबीर घोरउतीं, खेलतीं में रंग-गुलाब रे,
कन्हैया घर ना आवे जी।।९।।
चइत री सखी, फूले बन टेसू, सब सखी फूला लोढ़े जाई
हमरो पिया रहतें, फूला लोढ़े जाइतीं, रहतीं मैं पियवा के साथ,
कन्हैया घर ना आवे जी।।१0।।
बइसाख री सखि, बंसवा कटाइ, चुनि-चुनि बंगला छवाई,
हमरो पिया रहतें, बंगला छवइतीं, रुचि-रुचि कटतीं दुआर रे,
कन्हैया घर ना आवे जी।।११।।
जेठ हीं री सखि, भेंट जे भइले, पूजी गइले मनवा के आस,
दोआदसी प्रमु चनन रगड़ी, पूजी गइले बारहो जामात रे,
कन्हैया घर ना आवे जी।।१२।।

आसाढ़ मासे अपन रीतु धरे

सिपाही सिंह 'श्रीमंत' जी
सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’ जी

आसाढ़ मासे अपन रीतु धरे, बरिसत बून चहुँ दिसि घेरे
भरि गए नदी-नारा असर सुधारा, बहरि चढ़ले बुइया मास असाढ़ा
जहु द्वारे पुकारे तिरिया सादा, कि सामुदान विज राउर भादा।।१।।
कि सावन मासे बरिसे घन देउ, असगर भींजिले दोसर केहू नाहीं
भींजेले बसतर दुह थान हारा, कि सामी के तिलक भींजे मांझ लिलरा
जाहु द्वारे पुकारे तिरिया सादा, कि सामुदान बिज राउर भादा।।२।।
भादो ही भॅंवरा गुजारे सारी राति, कइसे छूटल दइया जीव के हराठी
लवका लवकत ह, होत अँजोरा, हम तब जानी कंत आवत मोरा
जाहू द्वारे पुकारे तिरिया सादा, कि सामुदाना विज राउर भादा।।३।।
कुआर ही कामिनी अटूत एक रटे, नयना ही काजर सिर सेनूर पहिरे
पहिरे सखि सब कि तोर घर नहीं, हम न आभागिन पाइब काहीं
जाहू द्वारे पुकारे तिरिया सादा, जीहू सामुदान बिज राउर भादा।।४।।
कातिक लागे सोहराई, हरखित अहिरा चरावत गाई
ठोके मानर नाचत कन्हाई, अपने पिया बिनु झूठ सोहराई
जाहू द्वारे पुकारे तिरिया सादा, कि सामुदान बिज राउर भादा।।५।।
अगहन अधिक सोहाई नइहर, से पियवा सासुर जाई
एक दिन पियह के सारण जे डांसे, अन्न-पानी बिनु नीन हरनाटे
जाहू द्वारे पुकारे तिरिया सादा, कि सामुदान बिज राउर भादा।।६।।
पूस ही मासे पूसवन्ती एक नारी, झीन भइले कपरा पेवन भइलसार
दुओ वेदन मारत हिलोरा, जइसे बोलेले पिया वन के जे मोरा
जाहु द्वारे पुकारे तिरिया सादा, कि सामुदान बिज राउर भादा।।७।।
माघ-मासे पड़े नित ठारा, काँपत जांघ, वेदना तब हारा
जाहू द्वारे पुकारे तिरिया सादा, कि सामुदान बिज राउर भादा।।८।।
फागुन मासे की फगुनी बेआरी, तरिवर पात भुइयाँ झरि जाई
कि अगती में जनितीं कि फगुनी बेआरी, अपनी पिया के धरितों अंकवारी
जाहू दुआरे पुकारे तिरिया सादा, कि सामुदान बिज राउर भादा।।९।।
चइत मास फूले बनटेसू, ले खुड़िया बिरिनावन जाइसू
छेवे चनन-बेल-गम्हारी, चितवा साजे भादा जमु के दुआर
जाहु दुआरे पुकारे तिरिया सादा, कि सामुदान बिज राउर भादा ।।१0।।
बइसाख ही मासे लगन दुई-चारी, सिचिले लगन विचार कइलो भारी
गारि मे माड़ो गवाइले गीत, अपनी पिया बिनु झूठ अनरीत
जाहू द्वारे पुकारे तिरिया सादा, जाहू सामुदान बिज राउर भादा।।११।।
जेठ मासे के बान्हत कटारी, जाके छैक भादा जमु के दुआर
जाहूं तू भादा रइया, राय कहइत तिरिया से
जांहू द्वारे पुकरे तिरिय सादा, जाहू सामुदान विज राउर भादा।।१२।।

प्रथमे गनेस चरन रीतु बान्हों

प्रथमे गनेस चरन रीतु बान्हों, कि मति बुधि अगम गंभीर
नवरस बिरिछि सुरति मनवा साँच, कि तनिको न राखत सरीर।।१।।
तनिकों न राखत सरीर हरि रामा।।0।।

नैना से नीर ढरकि गइले, सामी कि रउरो से बोलियो लजाय
कि मोरे अस सुंदर घर बसे कामिनि, से हो कइसे दूर देशो जाय।।२।।
तुहुँ त छुलाछन सुनु कामिनी, रहु सॅंवसार निधन
कि जीअते मानसू करत अधापन, मूअले सह दाव पाय दुख।।३।।
दहिन चलत कोन समुझावो,
कि दिन गति बीतले घोर केतो दिन, सामी तोही के परबोधी,
कि लाजो ना लागे पिया तोर।।४।।
कि हरि रामा।।0।।

इन्द्र की बाहीं धनिया परीछे, कि गजमोती दाहिन,
हाथ दस-पाँच पुरनवासी, सुनु बारी कारी परिछन जइबों जगरनाथ।।५।।
हाँ रे, घर ही बारे सामी महातम, तरुनी न पानी के सनेह।
आसाढ़ त मासे, सामी पंथ जनि जइह, कि दूर देसे गरजत मेघ।।६।।
हाँ रे, कायापुरवा मथनी, मायापुरवा बान्हों, कि जनि होइहें संग-साथ
जीवन जनम सुफल भल रहिहें, तबहिं जइबों जगरनाथ ।।७।।
हो रे, सावन सर्व सोहावन सामी, गह चढ़ि बोलत मोर,
चाहुं ओ दुर करत किलोले, हम तिरिया लागी माया-मोह।।८।।
हाँ रे, तुहुँ बारी कामिनि जनि त रोदन करु, जनि त लगावहु माया-मोह।।९।।
कि प्रान गइले चित एकहू न बूझ, कि पंछी होइके उड़ि जाय
हां रे तेजलों में तांतुल नइहर हत बंधों, कि तोहि सामी सेवों मनलाय
कि सबत सनेहिया सावन मासे तेजलों, मरबों जहर बिख खाय।।१0।।
सखि हरि रामा।।0।।

हाँ रे, काहे लाई लवला में घन अमरइया, कि काहे लाइ लवल फुलवर
काहे लाई छवल कि सीरी बंसहर घर, काहे लागी कइल बिआह।।११।।
कि बाबा लागी लवलो धनि धन अमरइया, कि माता लागी लबलो फुलवार
धनि लागी छवलीं में सीरी बंसहर घर, बंस लागी कइलीं बिआह।।१२।।
काहे लागी सामी रउरा ब्याह जे कइलीं, कि काहे लागी ले अइलीं बोलाय।
कि बाबा घरे रहतीं त बबुई कहइतीं, कि रहतीं मे कन्ना कुँआर ।।१३।।
सखी हरि रामा।।0।।

कि कायपुरवा मथनी, मायापुरवा बान्हो, जो होइहें संग-साथ
जीवन जनम सुफाल भल रहिहें, तबहिं जइबों जगरनाथ।।१४।।

प्रथम मास आखाड़ काया, आसाढ़ जो जन जोहिए

प्रथम मास आखाड़ काया, आसाढ़ जो जन जोहिए,
बुझि आगम-निगम प्रभुजी, हरिचरन पदुला हुए।।१।।
सावन सील सुभाव सीतल, दीढ़़ से मन में घरू,
भाव पिरती सुझाव सबसे, कोमल जल में जल रहीं ।।२।।
भादो भगती सजना चहुँ ओर चाफला चहुँ दिस भरी
होत जात प्रगास मंडिल, कठिन जल भवसागर भरी।।३।।
आसिन आसा दीढ़ कइके, जोग आसन साधिए
धीरे-धीरे गगन ऊपर सुरत डोरी लगाइए।।४।।
कातिक कंत कोमल दोआदसी जहां हंस के बास है
चुनत मोती मांग सरवन तंत लाहरा तुरंक हैं।।५।।
अनहद झीनी-झीनी बाजत, धन-धन जीवछ अगहन आई है,
दीन दीपक जोत जगमग, भाव न सोभा चाइए।।६।।
पूस-पुरन, हरि चरन पढु, चित चकोरा झकोरिए
मोती के बूंद जोहे पपीहरा, राम राम अधारिए।।७।।
त्रिकुट बेहकुट बहत सागम, जोग ध्यान लगाइउ
सीख साधु समाज धासन, जोग ध्यान लगाइउ ।।८।।
दरप जोत सरूप सरगुन मास फागुन आइउ
अचल राज उखंड मंडिल, त्रिपुल दल नवखंड हैं।।९।।
चइत चंचल गयो चिन्ता, पाइ शब्द सरूम काथी
धीरे-धीरे गगन ऊपर सुरत डोरी लगाइए।।१0।।
बइसाख साखा छोड़ि देहु, छोड़ि देहु जमे ब्रम के फंद हे
मूल गहि क पारे उतरे, आरौ रामा ना काल है।।११।।
जैरू जीव समारु अपने, जैठ अवसर दाँव है
आनन्द बरहो मास गावे, राम राम अधारिए।।१२।।

प्रथम मासे अखंड काया, आसाढ़ जोजन जोरहीं

प्रथम मासे अखंड काया, आसाढ़ जोजन जोरहीं
बूझि आगम-निगम प्रभुजी, हरिचरन पद गावहीं।।१।।
सावन सील-सुभाव सीतल, डीढ़ से मन में भरी
भाव प्रीत सुभाव सबसे………कमल जल में जल रही ।।२।।
भादो भगति सजन चहुँ ओर, चपला चहुँ दिसि भरी
होति जाति प्रकास मंडल, कठिन जल भवसागर भरी।।३।।
आसिन आसा डीढ़ कड़के, जोग आसन साधु के
धीरे-धीरे गगने ऊपर, वसुरति डोर लगावहीं।।४।।
कातिक कम्पा कमल दो आदमी, जहाँ हंसा के बास है
चुनत मोती माँग सरवर, तनु लहरा तुरंग है।।५।।
अनन्वृझिमि झिमि वजत धन-धन, जीवज्ञ अगहन आवहीं
बिनु दीपक जीत जगमग, भवन सोभा पावहीं ।।६।।
पूस पूरन हरीचरण पग, चित्त चकोर लगावहीं
राम नाम आधार प्रभुजी, हरिचरन पद गावहीं ।।७।।
भृकुट व्याकुट बहुत संगम मकर माघ लहाहीं
शिव साधु समाधि आसन जोग ध्यान लगावहीं।।८।।
वराह जोत सुरूप निरगुन मस्त फागुन आवहीं
अंचल राजा के खंड मंडिल, त्रिपुल दल नव खंड है।।९।।
चड़त चंचल गउ चिन्ता, कि याइ दासा रूपका
चलत निसि गये सो आसा, निरखत मन रूपका।।१0।।
बइसाख साखा छाड़ि दिये भ्रम, छाड़ि दिये ब्रह्म जमु के फंद
कि मूल गहि के पार अउर रचना काल है।।११।।
जेठ जीव सम्हारु अपना, इहो अवसर दाव है
आनन्द बारहमास गाये, राम राम अधार है।।१२।।

दखिने पवनसुत द्रुत गमन करु

दखिने पवनसुत द्रुत गमन करु, भरि गइले अवगाह।
दखिन देस बिकट पंथ सामी, कि जनि जइह भादो के मास।।१।।
बड़वन जइबो सामी बड़ा कष्ट पइबो, कष्ट मरि जइबो भूखिया-पियास
माता के हाथे की भोजनी समुलब, तिरिया के डांसल सेज।।२।।
कि ‘नारद-नारद’ कहि के पुकारब, कि सोइत रहब बनमांझ।।३।।
सखि हो हरि रामा।।0।।
हो रे, घरहिं बारे खाट सुवैया, बाहरे विरिछिया के आस।
बाहर बासा कोंहारे के आवा, फिरि-फिरि बनिया दोकान।।४।।
सखि हरि रामा.
हाँ रे, कायापुरवा मथनी, मायापुरवा बान्हो, जो न होइहें सेज साथ
जीवन जनम सफल भल रहिहें, तरहिं जइबों जगरनाथ।।५।।
हाँ रे, उतरत भादो चढ़ल कुआर, कि गडुल भइले पंख-झाड़
मोर डोरी लागेला सुरुज गोसईंया, कि परिछन जइबों गे जगरनाथ।।६।।
सखि हरि रामा।।0।।
महीनवाँ माघ के बादर सामी कि सरद महीनवाँ के घाम
इन्ह तीनहूँ से हारहु सामी, जइसे बीराना के काम।।६।।
हाँ रे, सूतल रहलीं सीरी बँसहर घर, कि सपना देखिले अजगूत
सपने-सपन हम कासी नहइलों, सपने पूजलों जगरनाथ।।८।।सखि हरि रामा।
हो रे, झूठ तोरे सपना कि झूठे तोर बिपना, कि झूठे मुखे बचन तोहार
कि सूतल रहलों में एक संगे सेजिया, कि कइसे गइले जगरनाथ।।९।।
हाँ रे, पाकर-पीपर अउरी घन तरिवर, सेअंमरा जे लागेले आकास
ताहि तर कुँअर पलंगा डंसवले, नित दिन गावत उदास।।१0।।सखि हरि.
हाँ रे सभवा बइसल तुहूँ ससुर बढ़इता कि सुनु ससुर बचन हमार।
हाँ रे, आपन पुत्र अपने परबोधीं कि नित दिन गावत उदास।।११।।
रामा हाँ रे पुत्र बोलाइके जांघे बइठवले, कि सुनु पुत्र बचन हमार,
कि अनका बारी तिया तोही हाथे सौंपलीं, कि कामिनि करत वियोग
हाँ रे, बाबा के सौंपिले अन-धन-सोनवा-कि भइया के सहर भंडार
माता के सौंपिले इहो बारीकामिन, कि परिछन जइबों जगरनाथ।।१३।।
हाँ रे, बारी जो रहितें, त बरिजतीं बहुरिया, छैला वरिजलो ना जाय
कुइयवाँ जो रहितें, कोड़िके भथइतों, समुद्र अथवलों ना जाय।।१४।।
सखि हरि राम।।0।।
हाँ रे, मचिया बइठल तुहूँ सासु बढ़इतिन, सुनु सासु बचन हमार
कि आपन बेटा अपने परबोधीं, कि नितदिन गावत उदास।।१५।।
कि हो सखि हरि रामा।।0।।
हाँ रे, पुत्र बोलाइके जांघे बइठवली कि सुन पुत्र बचन हमार
कि अनकर बारी तिया तोही हाथे सौंपलीं, कामिनी करत बिरोध।।१६।।
हाँ रे, बावा के सौंपिले अन्न-धन-सोनवां कि भइया के सहर भंडार,
माता के सौंपिले इहो वारी कन्ना, कि परिछन जइबों जगरनाथ।।१७।।
हाँ रे, बारी जो रहितें, बरिजतों बहुरिया, छैला बरिजलो ना जाय
कि गलिया जो रहितें, खिड़की बेढ़इतों, कि डगर बेढ़वलो ना जाय।।१८।।
सखि हरि रामा।।0।।
कायापुरवा मथनी, मायापुरवा बान्हों जो न होइहें संग साथ
जीवन जन्म सुफल भल रहिहें, तबहिं जइबों जगरनाथ।।१९।।
हाँ रे, सुर-नर कातिक सुनहु मोर सामी, प्राते करहु असनान
माता-पिता-गुरु-साधु को सेवा, इहो त करहु मन लाय।।२0।। सखि हरि.
घरहिं मन माता, घरहिं त पिता, घरहिं सहोदर जेठ भाय
इन तीनउ ंचे कइ मनिह, घरहिं पूजिह जगरनाथ।।२१।।सखि हरि रामा।
हाँ रे भाई सहोदरहित ना होइहें, उहो ना जइहें संग-साथ
कि इ दुनु जंघिया सहाबत रहिहें, कुसल परिछबों जगरनाथ।।२२।।
माता रोइहें तोरा ‘पूता-पूता’ कहिके, कि बहिनि रोइहें छव मास
कि हम धनि रोअबों ‘सामी-सामी’ कहिके, कि केकर जोहब आस।।२३।।सखि.
हाँ रे, माता जो रोइहें मोरा जीयते जनमवा, बहिना रोइहें निछुधाह
तुहूँ धनि रोअबू त घरी रे पहरवा, पर-घरवा जोहेलू आस।।२४।।
सखि हरि राम।
कायापुरवा मथनी, मायापुरवा बान्हों, जो न होइहें संग-साथ
जीवन जन्म सफल भल रहिहें, तबहिं जइबों जगरनाथ।।२५।।
अगहन आगे चेतहु मोरे सामी, सुनु सामी बचनी हमार,
हीरा-मानिक दुनु काने के तरुअनवों, अभरन लेहु ना उतार।।२६।। सखि.
भले ते कहलु धनि, भले समझवलू, जे मनवाँ तोरे से मोर
हीरा त मानिक दुने काने तरुअनवाँ, इहो बेंचि करबों अहार।।२७।।
सखि हरि.
कुल कुलंधर पुरुष पुरंधर, सुनु पुरुस बचनी हमार
काढ़ि कटरिया त्रिया के चीरहीं दीह, तबहिं जइह जगरनाथ।।२८।।
कायापुरवा मथनी, मायापुरवा बान्हों, जो न होइहें संग साथ
जीवन जन्म सफल भल रहिहें, तबहिं जइबों जगरनाथ।।२९।।
सखि हरि रामा।
हाँ रे, मइल कपड़वा तन झांझर सामी, चिकसा विनु सूखल सहीकिखा
भल-भल मानुस कहिहें भिखारे, कि चलत में प्रेम सनेह।।३0।।
सखि हरि रामा।
हाँ रे, रातुल धोती करबों झीनी त चदरिया, पीठी लेबसे कमर कसे
ठाकुरजी के हम किरिपा मनइबों, से कि कुशले परिछबों जगरनाथ।।३१।।
सखि हरि.
हाँ रे, धरहीं त खाल सामी धीव-मधु भोजनी, बहरे त सूखले गरास।
कबहीं खइब सामी, कबहीं के नाहीं, कबहीं के परब उपास।।३२।।
हाँ रे, पूसहिं मासे पूस-बरती नहइलीं, पूजलीं में गउरी निधान
बारे बलमू मोर परदेसे जइहें, कि अभरन कवन सिंगार।।३३।।
कायापुरवा मथनी, मायापुरवा बान्हों, जो न होइेहें संग-साथ
जीवन जन्म सुफल भल रहिहें, तबहिं जइबों जगरनाथ।।३४।।
हाँ रे, मुनि सब, मुनि सब तीरथ चललें, मकर करेले असनान,
माघ महीना तिरवेनी के महातम, से हो कइसे परदेस जाय।।३४।।सखि हरि.
तीरथ उमिरिया हम तीरथ करबों, नाहीं भोगब नरक अघोर
तीरथ कइलें चरन हम बझुक धरबों में लढेकवा निधान।।३५।।
हाँ रे, घर तखिर सुख संपत सामी, पल्लोत होखेला आकास
पथल पूजि के पघत घरे अइबों, तबहिं होइहें जीव थीर।।३६।। सखि हरि.
एक धह, दुइ धह, धह त सहस्र धह, धह भोग लखकर पथल-पर्यंत धह
अइबों कि तबहीं होइहें मोर जीव थीर।।३८।।सखि हरि रामा।
कायापुरवा मथनी, मायापुरवा बान्हों, जो न हो इहाँ संगा साथ
जीवन जनम सुफल भल जहिहें, तबहिं जइबों जगरनाथ।।३९।।
फागुनमासे बसन्त रितु मसामी, सुनु सामी बचन हमार
सब त सखिन मिलि चांचर गावे, हम तिरिया लागी माया-मोह।।४0।।सखि.
हाँ रे, तुहुँ बारी कामिन जनि त रोदन करू, जनि त लगावहु माया-मोह
मोरा त डोरी लागे सुरुज गोसाइयाँ, परिछन जइबों जगरनाथ।।४१।।
हाँ रे, बाघ-भाल बने बहुत बिआयल, दहिने सुरुजवा के जोंत
उहवाँ चोर-ठोर जब लगिहें, उनके मरले नाहीं दोस।।४२।।सखि.
हाँ रे, बाघ-भाल हमके कुछुओ ना करिहें, जो घंटे बसे भगवान
उहवाँ चोर-ठोर मोहि का करिहें, कि दीहें भोजनी बनाय।।४३।।सखि हरि.
कायापुरवा मथनी, मायापुरवा हो, जो न होइहें संग-साथ
जीवन जन्म सुफल भल रहिहें, तबहिं जइबों जगरनाथ।।४५।।सखि हरि.
हाँ रे, नगरी बिजयपुर सीहपुर गउँवा, तहवाँ बएजनाथ ठांव
नंग नारी, ऊपर नाहिं बसतर, तहाँ सामी धाई लीहो ध्यान।।४६।।
हाँ रे, जाहि हम लौटब, तोरे मोरे दरसन, नाहीं त दइब हरि लीन
केकर नारी, केकर तुहूँ तिबही, काहे मनवा हीछत मोर।।४७।।सखि.
हाँ रे, झारीखंड जहुँ जइब मोरे सामी, अगते में हरिहें गेआन,
तोहि से लीहें जे ठोढे के डोरा, ठोकर मारत तोहार।।४८।।सखि हरि रामा।
बइसाख ही मासे लगन दुइ-चारी, खैर-सुपारी लेले हाथ
आउ आउ बभना, बइठु मोरे अँगना, कि सोची देहु निदवाँ सुरी।।४९।।सखि.
हाँ रे, सूकर शनीचर आउरो दिन मंगर, विअफे के दिनवा सुदीन
विअफे के दिनवाँ पयंत राजा करिह, कि कुशले परिछिह जगरनाथ।।५0।।
हाँ रे, मरहू रे वभना, बभिनिया होखे रांडे, जरि रि जाहू पोथिया-पुरान
एक त सामी मोरा चित्त के उदासल, दोसरे बाभन दिन ठाने।।५१।।
हाँ रे, काहे रे धनिया बभन गरिअवलू, जरिहें पोथिया-पुरान
ठाकुरजी के हम कीरिपा मनइबों, कुसले परिछवों जगरन्नाथ।।५२।।
कायापुरवा मथनी, मायापुरवा बान्हों, जो होइहें संग-साथ
जीवन जनम सुफल भल रहिहें, तबहीं जइबों जगरनाथ।।५३।।
हाँ रे, जेठहिं मासे जाहुँ जइब मोरे सामी, जनि दीह हमरा के दोस
कि परग-परग गोरख फोड़ा पड़िहें, कि नित दिन गनब कइ दोस।।५४।।सखि.
हाँ रे, लछु त टका के हम छत्र बेसहिबों, पाँव त पनहिया लेबों जोर,
ठाकुरजी के हम किरपा मनब, कुसले परिछबों जगरनाथ।।५५।।सखि.
हाँ रे, जाहुँ तुहुँ जइब सामी देस-परदेसवा,
हमहूँ जोहने लगि गाँव रास्ता के होइब
सामी पावें के पनहिया घामे, शीतल जुड़ि छाँह।।५६।।
हाँ रे, पानवा अइसन धनि पातर रहतू, फूलवा अइसन सुकवार,
मरिची अइसन धनि पातर रहतू, फूलवा अइसन सुकवार,
मरिची अइसन धनि गोठा रहितू, कि क लेतों में झोरिया लगाय।।५४।।सखि.
कायापुरवा मथनी, मायापुरवा बान्हों, जो न होइहें संग-साथ
जीवन जनम सुफल भल रहिहें, तबहिं जइबों जगरनाथ।।५५।।

चनन रगरि सुबास हो, गरवा पुहुपे के हार

चनन रगरि सुबास हो, गरवा पुहुपे के हार
अँगियन इंगुरा भरइतो, चढ़ि गइ मास आसाढ़
हाँ रे, कहु रे ऊधो, कहवाँ छाड़िं के गइल ठाकुर-दुअरा के राज
कहु रे ऊधो, कहवाँ छाड़ि के गइल।।१।।
कि सावन अति दुख दारुन, दुखवा सहलो ना जाय
इहो दुख पड़े ओही सँवरो, जिन कन्ता परेली ओराय
भादोइ भरेली भेआवन, भरि गये गहिरि गँभीरे
लवका लवके, बिजुली चमके, केकरे सरन लगि जावँ।
कहु रे ऊधो, कहवाँ छाड़ि के गइल ठाकुर-दुअरा के राजा,
कहु रे ऊधो, कहवाँ छाड़ि के गइल।।२।।
स्वर ही कुँअरा विदेस, हमसे कुछु नाहीं कही
हम त अभागिन साँवर तिरिया, रहलीं असरा लगाय,
कहु रे ऊधो, कहाँ छाड़ि के गइले ठाकुर-दुअरा के राज।।३।।
कातिक लागे पूर्णवासी, नितदिन करे असनान
गंगा नहइलों, बरत एक पूजलो में गंगा एतवार
अगहन अग्र महीना पहिरो अगरे के चीर
इहो चीर हउवें बलमु जी के बेसहल, जीअ कन्ता लाख बरीस।।४।।
पूस पूसवन्ती एक नारी नितदिन आवेले खाट,
खाट के सोवइया पिया गइले परदेसवा, खाट मोरा एको ना सोहाय
ठाकुर दुअरा के राज, कहु रे ऊधो, कहाँ छाड़ि के गइले।।५।।
माघहिं मासे पड़े निज ठार, पड़ि गइलें माघवा के जाड़
सइयाँ जो रहितें, सिरखा भरइतें, खेपितों में माघवा के जाड़।।६।।
फागुन रंग महिनवाँ रे, सामी सव सखि खेलत फाग,
भरि पनबटवा मे अबीर धोरइतों, खेलतों छयलजी के पास,
कहु, रे ऊधो, कहाँ छाड़ि के गइले, ठाकुर-दुअरा के राज।।७।।
चइत फूले बन टेसू, फूलि गये केसरी गलाब
पिया मोरा रहितें, चुनरी रंगइतीं, कि रंगतीं छयलजी के पाग
कहु रे ऊधो, कहाँ छाड़ि के गइले ठाकुर दुअरा के राज।।८।।
बइसाखहिं उखमे के दिन, उचके बँगला छवाय,
सामी मोरा रहितें त बँगला में सोइतें, हम्में धनि बेनिया डोलाये,
कहु रे ऊधो, कहाँ छाड़ि के गइले, ठाकुर-दुअरा के राज।।९।।
जेठहीं पूजले बारहोमास, पूजि गइले मनवा के आस,
तुसलीदास चरण के, हरि के चरन चितलाय।

चनन रगड़ी सुभासतीं, गरवा कापे के हार

चनन रगड़ी सुभासतीं, गरवा कापे के हार,
इंगुरोना पांग भरउँतीं, चढ़ि गये मास आसाढ़।
आहो चढ़ि गये मास आसाढ़, इंगुरों ना मांग भरउँती।।१।।
सावन मास महीनवाँ, रिमझिम बरिसत देव, अब हो रिमझिम वरिसत देव
एक मोर भींजवलें रेसम, नैना भींजे अलमोल, अब हो नैना भींजें अलमोल।।२।।
भादोहीं मास महीनवाँ, भरि गये नदिया गंभीर, अब हो भरि गये नदिया गंभीर
लवका लवके, बिजली तड़के, केकरे ओसरवा होइबों ठाढ़, अब हो केकरे।।३।।
कुआरहीं मास महीनवाँ, कुँअरा गइले विदेस, अब हो कुँअरा गइले विदेस।
नांनन कोइलर कुहके, कोइलर शब्द सुनाई, अब हो कोइलर शब्द सुनाई।।४।।
कातिक मास महीनवाँ, लागे कतिकी पूर्णवांस, अब हो लागे कतकी पूर्णवांस।
लहाई खोरी शिवजी पूजे, शिवजी देत असीस, जुग-जुग जिहें रउरे कन्त,
कन्त लाख बरीस, अब हो कन्त लाख बरीस।।५।।
अगहन मास महीनवाँ, पहिरब अगरे की चीर, इहो चीर बैसहल मोर बलमू के,
अब हो इहो चीर बेसहल मोर बलमू के हो।।६।।
पूसहीं मास महीनवाँ, पूस-बरती लहाई, अब हो पूस-बरती लहाई।
लहाई बोरिये शिवजी पूजे, शिवजी देत असीस, अब हो शिवजी देत असीस।।७।।
माघहीं मास महीनवाँ, सब सखी सिरखा भराई, जब हो सब सखी सिरखा भराई।
हमरो पिया रहतें सिरखा भरवतीं, खेपतीं मघवा के जाड़,
अब हो खेपतीं मघवा के जाड़।।८।।
फागुन मास महीनवाँ, सब सखी अबीरा घोराइ, अब हो सब सखी अबीरा घोराई।
जानकी के हाथे पिचकारिया, घर-घर खेलती अबीर,
अब हो खेलती रंग गुलाब।।९।।
चइत मास महीनवाँ फूले टेसू री गुलाब, अब हो फूले टेसू री गुलाब,
टेसू री ऊपरी कोइलर कुहुके, कोइलर शब्द सुनाई,
अब हो कोइलर शब्द सुनाई।।१0।।
बइसाखहीं मास महीनवाँ, सब सखी बँगला छवाई,
अब हो सब सखी बँगला छवाई।
बँगला के छँहें बालम सूते, हम धनि बेनिया डोलाईं
अब हो हम घनि बेनिया डोलाईं।।११।।
जेठहीं मास महीनवाँ पुग गये मनवा के आस, अब हो पुग गये मनवा के आस।
दोआदसी प्रभु चरन, पुग गये बरहो जमात, अब हो पुग गये बारहो जमाता।।१२।।

सावन मासे मेंहदी रोपाई गइले

सावन मासे मेंहदी रोपाई गइले, भादोहीं दुई-दुई पात, सुनिले कन्हैया,
पिया मोरे जोगी भइले, हमहूँ जोगिनियाँ बनि जाय।।१।।
कुआर ही मासे कुँअरा विदेश के गइले,
नाहीं कुछ कहलो जाइ, सुनिले कन्हैया,
पिया मोरे जोगी भइले, हमहूँ जोगिनियाँ बनि जाय।।२।।
कातिक मासे कहत किताब, ननदी अगहन अग्र स्नेह
पूसहीं मासे देहिया भँवर भइले,
अजहूँ न अइले भइया तोर, सुनिले कन्हैया,
पिया मोर जोगी भइले, हमहूँ जोगिनियाँ बनि जाय।।३।।
माघहीं मासे महान संताप ननदी, फागुन रंग महीने,
चैत मासे फूले बन टेसू, केकरे रंगबों सिर पाग, सुनिले कन्हैया
पिया मोरे जोगी भइले, हमहूँ जोगिनियाँ बनि जाय।।४।।
बइसाखहीं मासे बाँसवाँ कटाइ ननदी,
जेठहीं कुहरत मोर, असाढ़हीं मासे पूगे बरहोमासा,
पूजी गइले मनवा के आस, सुनिले कन्हैया
ऊधो, मोरे जोगी भइले, हमहूँ जोगिनियाँ बनि जाय।।५।।

सिरी के चन्दन अंग लगाय के कामिनि करत सिंगार

सिरी के चन्दन अंग लगाय के कामिनि करत सिंगार
जबसे ऊधो माधवपुर गइलें, भोरे माधवपुर छाई।।१।।
एक त ऊधो पिया बारी वयस के, दूजे पिया परदेस
तीसरे मेघ झमाझम बरसे, सावन लगत अनेख।।२।।
भादो रंग बिहंग सखिया, दूजे अंहरिया के रात
लवका लवके, बिजली चमके, चिहुँकी उठेला जिया मोर।।३।।
कुआर ए सखि, पिया परदेसे जँहें बरसेला मेघ,
अबकी अवन पिया नहिं आये, मरबों जहर-बिखी खाइ।।४।।
कातिक री सखि, लगि पूर्णमासी, लागि अजोधा नहान
सब सखि अबलही प्रेम सुनरिया, केकरे गहन लगि जाई।।५।।
अगहन री सखि, अग्र महीना, चहुँ दिसि उपजत धान
चकवा-चकई केलि करतु हैं, नदिया सरनवाँ के बीच।।६।।
पूसहिं री सखि, परत फुहेरी, चीर धूमिल होइ जाय
नदिया किनारे कान्ह बंसी बजवलें, नैना ढरन लागे लोर।।७।।
माघहिं री सखि, परे निजु ठारे, चुनि-चुनि सेज लगाई
केतनो ओढ़िले साल-दुसाला, बिना पिया जाड़ न जाई।।८।।
फागुन री सखि, रंग महीना, सब सखि अबीर घोराई
पियवा रहितें तो अबीर घोरवतीं, रंगतीं मैं सामीजी के पाग।।९।।
चैतहिं ए सखि, फूलत कुसुमिया, डारिन भौंरा लोभाइ
का तूहूँ भँवरा रे लोटा-से-पोटा, तोरे दुख सहलो न जाय।।१0।।
बइसाखहिं री सखि, बंसवा काटल, ँचई बंगलवा छवाय
पिया लेइ सूतलों में बंगलवा के छहियाँ, अँचरा से बेनिया डोलाय।।११।।
जेठहिं मासे री, पूजे बारहो मासा, पूजी गइले मनवा के आस
माधो से मुख आनि मिलायो, पूजी गइले मानवो के आस।।१२।।

आषाढ़ मास घटा घन गरजेत

आषाढ़ मास घटा घन गरजेत, गरजत ठनकत वो छन में
चिहुँकि-चिहुँकि धनि चहुं ओर चितवे, बइठि के सोच करे मन में।
आवे, ए नंदलाल बेहाल दरस के, जिअले के ह धिरिकार एहि तन के
हाँ रे, जहिया से तेजि गइले बेनीमाधो, तहिया से आगि लगे एहि तन में।।१।।
सावन सइयाँ छएल मुसुकानी, प्रीति कइले ओही कुबरी से
ए नंदलाल बेहाल दरस के, जिअले के ह धिरिकार एहि तन के
जहिया से तेञि गइले बेनीमाधो, तहिया से आगि लगे एहि तन में।।२।।
भादोहीं ऐ सखि, भएली भेआवन, भरी गइले नदी-नार-थल जल
से कोइली जो होइतीं बने-बन ढ़ूंढ़तीं, ताल सूखे बिरिनावन के,
ए नंदलाल बेहाल दरस के, जिअले के ह धिरिकार एहि तन के
जहिया से तेजि गइले बेनीमाधो, तहिया से आगि लगे एहि तन में।।३।।
आसिन कुँअर खबरियो ना जाने, पतियो ना आवे ओही मधुबन से
ऐ नंदलाल बेहाल दरस के, जियले के ह धिरिकार एहि तन के
जहिया से तेजि गइले बेनीमाधो, तहिया से आगि लगे एहि तन में।।४।।

प्रथम कातिक मास चढ़े अलगाह

प्रथम कातिक मास चढ़े अलगाह,
हरखित हिहरा चरावत गाय, कि लादल बरधी चलेले बंजिर।
सखि हमें ना जइबों, आजु झूलने तुम जाय रे सखी, आजु झूलने तुम जाव।।१।।
अगहन मासे कि लाले सनेह, नइहर से धनि सासुर जाई,
कि पान पियरी व पहिरत कापड़ सूत, जोड़ी बिछुड़ने दइब दुख दीना,
कि हमें ना जइबों, आजु झूलने तुम जाव रे सखी, हमें ना जाइबों।।२।।
पूसहिं मासे पूस-बरती नहाय, झीन भइलकापड़ बएस भइले भार
सखि हमें ना जइबों, अजु झूलने तुम जाव रे सखी, हमें ना जइबों।।३।।
माघहीं मासे पड़ेले निजठार, काँपत पिंडुरी, काँपेले मोतीहार (मोरी हाड़)
कि काँपत पिडुरी, बेदना घहराय, कि अपनो पिया बिनु जाड़ो ना जाय
कि हमें ना जाइबों, आजु झूलने तुम जाव रे सखी, हमें ना जाइबों।।४।।
फागुन मासे कि फगुनी बेयार, तरिवर पात खरिक भुंइयाँ गिरे
अगति में जनितो कि फागुनी बेयार, त सइयाँ धरती में भर अंकवार
सखि हमें ना जाइबों, आजु झूलने, तुम जाव रे सखी, हमें ना जाइबों।।५।।
चइत मास फूले बन-टेसू, ए जी सखी सब लोढ़ेले बन गइलें
लोढ़त फूल कि गांथत हार, से हार पठइब त सइयाँ हजूरे
सखि, हमें ना जाइबों, आजु झूलने, तू जाव सखी, सखी हमें ना जाइबों।।६।।
बइसाखहिं मासे फूले बन-ढोग, उ एजी नर खर काटि छावलें सब लोग
कि चिरइ-चुरुंगो खोंता लगावे,
सखि, हमें ना जाइबों, आजु झूलने, तू जाव रे सखी, सखी हमें ना जाइबों।।७।।
जेठहिं मासे लगन दुइ-चारी, गारिले मांडो बिआहिले बारी
कि गारिले मांड़ो, गाइले गीत,
सखि, हमें ना जाइबों, आजु झूलने, तुम जाव सखी, सखी हमें ना जाइबों।।८।।
जेठहिं मासे जेठुई का पास, कवन दुःखी सब पुरवत आस
सखि, हमें ना जाइबों, आजु झूलने, तुम जाव सखी, सखी हमें ना जाइबों।।९।।
आषाढ़हिं मासे बरीसे मेघन देव, अकसर भींजले, दूसर कोई नाहीं,
भींजे वस्त्र दुई ए थन हार, सामी के तिलक भीजें बीचे लिलार
सखि, हमें ना जाइबों, आजु झूलने, तुम जाव रे सखी, हमें ना जाइबों।।१0।।
भादोहिं मासे भरेली भयावन, भरि गइल नदी-नार-थल जल से
सखि, हमें ना जाइबों, आजु झूलने, तुम जाव रे सखी, हमें ना जाइबों।।११।।
कुआर मासे पूजेले बरहो मास, आइ गइलें सइयाँ, पूजले हमरो आस
सखि, हमें ना जाइबों, आजु झुलने, तुम जाव सखी, हमें ना जाइबों।।१२।।

प्रथमहिं बान्हिले गुर चरनवा

प्रथमहिं बान्हिले गुर चरनवा, त जल-थल बान्हिले नीर
सात सै बिघिन समुद्र-बीख बन्हलीं, तनीको ना डोलय सरीर।।१।।
सखि हो हरि हरि।
सावन ए सखि, सरब सोहावन, बिजुबन कुहुकत मोर
मोरवा के बोलिया जे हियरा साले, दुनु नयना ढरे लोर। सखि हो।।२।।
भादो ए सखी, भैली भेआवन, गरि गइले गहिर गंभीर
लवका लवके, बिजुली ठनके, केकरे सरन लगि जावॅं। सखि हो ।।३।।
कुआरहिं ए सखि, कंत बिदेसे गइले, हमसे कछु ना कही
हम अभागिन साँवर तिरिया, रहली में आसरा लगाय। सखि हो।।४।।
कातिक ए सखि, लागे पूर्नवांसी, कि सखि सब गंगा नहाय
गंगा नहाई, बरत एक पूजलों, पूजलों मे गउरी, गनेस। सखि हो।।५।।
अहगन ए सखि, लगले सनेहिया कि अगरे के चीर
इहो चीर हउवें बलमुजी के बेसगल, जीअ कंत लाख बरीसा सखि हो।।६।।
पूसहिं ए सखि, परत फुहेरा, निति उठि अंचवत खात,
सेज के सोवइया सइयाँ गइले परदेसवा. सेज मोर एको ना सोहता।
सखि हो।।७।।
माघहिं ए सखि ए सखि, पड़े निज ठारा, पड़ि गइले माघवा के जाड़
पिया मोरे रहितें त सिरखा भइरतें, खेपितों में माघवा के जाड़ा।
सखि हो।।८।।
फागुन ए सखि, रंग महीनवाँ, घोरितो में लाली गुलाब
भरि पनिया अबीर रस घोरतीं, खेलतीं छैलवा के साथ। सखि हो।।९।।
चइत ए सखि, फूले बन टेसू, कि फूली गइले केसरी गुलाब
पिया मोरे रहितें, त टेसू तूरी अनितें, हम धनि चुनरी रंगाय सखि हो।।१॰।।
बइसाख ए सखि, उखम के दिनवाँ, ँचीं कइ बॅंगला छवाय,
पिया लेइ बइठब बॅंगला के छहियाँ, हम धनि बेनिया डोलाय। सखी हो।।११।।
जेठहिं ए सखि, भेंट जे भइलें, पूजि गइलें मनवाँ के आस
जेठहिं पियवा से भेंट जे भइलें, कि पूजि गइले बारहोमास सखि हो।।१२।।

हाँ रे, मोरे भरत उठि भंजत हाथ

हाँ रे, मोरे भरत उठि भंजत हाथ, हम ना जइबों रघुपति के साथ
मारत रितुदल रितुआ वान, कंचन कोट देत भहराय,
पलक छानि भाँजे लछुमनजी का शक्ति लगी, ए राम रघुपति मन सोचे
लक्षुमनजी का शक्ति लगी।१।।
माघहिं मासे चूअत बसंत, नाहीं त मदोदर सुनु पिया कंत
पिय देई डार, राम गृही पार, नाहीं त राम दीहें निरवंश
बचे नाहीं नाहीं कोई, लछुमनजी का शक्ति लगी।।२।।
हाँ रे फागुन रंग उठे चहुँ ओर, लछुमन बिना राम बहुते उदास
जाहू मोरे लछुमन रहितने आजु, हमहूँ खेलतीं गढ़ लंका में फाग
मचे जब से होरी, लछुमनजी का शक्ति लगी
राम रघुपति मन सोचे, लछुमनजी का शक्ति लगी।।३।।
चइत मासे न गेरुआ गंभीर, धावहु-धावहु मोरे हनुमंत वीर
जाहु धवलागिरी परबत सजीवन धान, नाहीं त लछुमन तेजिहें परान
राम नाहीं जीह, लछुमनजी का शक्ति लगी ।।४।।
बइसाखा मासे तिरिया भिपुल अवगाह, लछुमन बिना मोर कटक उदास
आधी रात जलकोपी नाहीं होय, हमहूँ मरब जहर-विख खाय
अवध नही जायेब, लछुमनजी का शक्ति लगी।।१।।
जेठहिं लछुमन भइले तैयार, लंका के छेंकलन दसो दुआर
कड़बड़ लंगा, इ सरजूग, राम के जन अइले हुहूत
घेरे जइसे लंका, लछुमनजी का शाक्ति लगी। राम मन सोचे.।।६।।
आषाढ़ मास घटा घनघोर, सवरन से होइहें मेघनाथ जौर
मारत खनसे उड़िलै आकाश, जांहि गिरिहै सिलोचना का पास
लछुमनजी का शक्ति लगी। राम रघुपति मन साचे.।।७।।
सावन मास रावण से जूझे, अभरन कापड़ पहिरत सूत
कुंभकरन रावन ऐसन वीर, जाइ गरै सगरवा के तीर सजन सब लेके,
राम रघुपति मन सोचे, लछुमनजी का शक्ति लगी ।।८।।
भादोहिं हांक दैत हनुमान, गरजत-ठनकत भइले बिहान
जइसे गरजत रहनिया के बोइसे मड़वगड़ लंका के घोर
चरित्र सब लखि गये, लछुमनजी का शक्ति लगी।।९।।
कुआरहिं कहत मदोदर राम, चलहु कंत बन असुतुन वीन
सीझत राम अउर कुछ दीन, पगले या पाइब, लछुमनजी का शक्ति लगी।
राम रघुपति पन सोचे, लछुमनजी का शक्ति लगी ।१0।।
कातिक करत जतर पहिचान, बोलत राम जे शीतल बात बोलेली जानकी
बहुत दिनो हो बीचे देवमुन के संग छोड़ि व रइनि बहुत दिन बीते,
राम रघुपति मन सोचे, लछुमनजी का शक्ति लगी ।।११।।
अगहन सीता के आगे दिन, पीछे दीतो नजर बजाय
लंका के राज भवीखन दीन, पुनि सब आयो, लछुमनजी का शक्ति लगी।।१२।।
पूसहिं गे बरहो मास, बन से लवटेले लछुमन-राम
मिले सबको से, लछुमनजी का शक्ति लगी।
राम रघुपति पन सोचे, लछुमनजी का शक्ति लगी।
जो कोई गावे बरहो मास, ले बइठे बैकुंठ के धाम
घरहिं भगवती मंगल गावे, बइठल भरत चवंर डोलावे
राम रघुपति मन सोचे, लछुमनजी का शक्ति लगी ।

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