पारंपरिक ठेठ लोकगीत के गावे के पीछे एगो मकसद बा – शारदा सिन्हा

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माथे पर बड़ी लाल बिंदी, होठों पर गहरे लाल रंग की लिपस्टिक और मुंह में पान, इसी रंग में रहती हैं, भोजपुरी की सम्मानित गायिका शारदा सिन्हा. खाली समय में घर का काम वैसे ही करती हैं, जैसे कोई और घरेलू महिला. मेहमानों को खुद चाय बनाकर देती हैं. खाली समय रहा तो इनका मनपसंद काम है किसी से भी कोई नई चीज जानना-समझना. और कुछ नहीं तो अपने घर की नौकरानी से ही आदिवासी गीत सुनती हैं. शारदा सिन्हा से मिलते वक्त, उनसे बात करते वक्त एक पल को भी नहीं लगता कि आप उस गायिका से मिल रहे हैं जिसको देखने-सुनने के लिए हजारों की भीड़ घंटों खड़ी रहती है. रोज-ब-रोज ही लोकसंगीत के कार्यक्रम होते रहते हैं. लेकिन शारदा सिन्हा हर जगह जाना पसंद नहीं करतीं. उन्हें बुलाने के लिए भी नैतिक साहस चाहिए होता है. लेकिन कम कार्यक्रमों में जाकर भी वे किसी भी कलाकार से ज्यादा दिलों पर राज करती हैं. जुबान पर छायी रहती हैं. लोकमानस में रची-बसी शारदा सिन्हा से कुछ समय पहले लंबी बातचीत हुई. पेश है बातचीत के संपादित अंश.

नया क्या हो रहा है इन दिनों?
नया क्या, मेरे जेहन में तो हमेशा पुराना ही चलते रहता है. गीतों की तलाश में लगी रहती हूं. पारंपरिक, ठेठ लोकगीत मिल जाए तो उसे गाकर, अगली पीढ़ी के लिए सुरक्षित कर जां. नए में ज्यादा रुचि नहीं.

नया तो बहुत कुछ हो रहा है. लोकगीतों में टैलेंट हंट प्रोग्राम, अलबमों की भरमार, भोजपुरी फिल्मों का अंधाधुंध निर्माण. आप इन सबमें कहां हैं?
टैलेंट हंट में जो बच्चे आ रहे हैं, उनमें काफी संभावनाएं दिखती हैं. बस, वे एक चीज से बचें तो बेहतर. नकल कर सिर्फ गीतों को गाकर गायक बनने का ख्वाब न रखें, फटाफट फॉर्मूले में विश्वास न करें. यह तुरंत सफलता तो दिला भी दे लेकिन अंततः खारिज कर दिये जाएंगे. रियाज करें, धैर्य रखें और जो गाएं, उसे निजी जीवन में निभाएं भी. रही बात अंधाधुंध एलबम निर्माण की तो मैं कभी रेस में नहीं रहती. अपनी शर्तों पर काम करती हूं. सिर्फ बाजार में बने रहने के लिए कुछ भी नहीं गा सकती. सिर्फ पैसे के लिए मशीन की तरह गीतों की बौछार नहीं कर सकती. गीत मेरे मनमुताबिक होने चाहिए. समाज ने मुझे जिम्मेदारी दी है, लोग मुझसे उम्मीद करते हैं, मैं भी बहक गई तो… और फिर यह जो भोजपुरी फिल्मों का दौर है, उससे तो मैं रिदम ही नहीं बिठा पाती. अभी एक ‘देसवा’ फिल्म आ रही है, उसमें गीत है.

लोक संगीत, विशेषकर हिंदी पट्टी के लोकसंगीत के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
मैं तो डरती हूं कि अभी जो हो रहा है, कहीं वही मुख्यधारा न बन जाये. गीतकार, बाजार, गायक कलाकार और श्रोता, सब लोकसंगीत को हाईवे सॉन्ग बनाने पर आमादा हैं. सरोकार खत्म हो रहे हैं.

लोकसंगीत, विशेषकर भोजपुरी लोकसंगीत को अश्लीलता का पर्याय बना देने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार किसे माना जाए?
जिम्मेदार तो कलाकार,बाजार,गीतकार, श्रोता सभी हैं. कुछ गीतकारों की हालत ऐसी है कि वे गांव-जवार के पारंपरिक लोकगीतों को भी अपने नाम से कर लेते हैं और कहते हैं कि यह गीत मैंने लिखा है. या फिर ऐसे गीतों को रचते हैं, जिसमें सब कुछ एक माल की तरह हो जाता है. दूसरी ओर कंपनियों का भी दबाव रहता है कि वे कुछ ऐसा ही लिखें या गाएं, जो रातो-रात, चाहे जिस वजह से हो, चर्चे में आ जाए. नए गायकों को समझाती हूं कि क्यों ऐसे ऊल-जुलूल गीत गाते हो तो वो कहते हैं कि पेट का सवाल है. और फिर रही बात श्रोताओं की तो वे कभी रिएक्ट ही नहीं करते, इसलिए यह सब चल रहा है.

हिंदी फिल्मों में तो अब लोकगीतों को खासा तवज्जो दी जा रही है. लेकिन बिहार के लोकगीत वहां नहीं पहूंच पा रहे. ऐसा क्यों?
लोकगीतों को तो हमेशा ही तवज्जो दी जाती रही है. अमर गीत तो वही हुए हैं, जिनमें शास्त्रीयता है या लोक धुनों की छौंक. अब अगर बिहार के लोकगीतों को बॉलीवुड फिल्मों में तवज्जो नहीं मिल पा रही तो यह हमारी कमजोरी है. बिहार में तो एक-से-एक गीत हैं, जो गांव में गाए जाते हैं, चरवाहे गाते हैं. लेकिन विडंबना तो यही है न कि जिसमें निजी फायदा न हो, अपना नाम न हो, उसके लिए क्यों परेशान होना.

आपका जन्म झारखंड यानी रांची में हुआ. मूलतः आप मैथिली परिवार से हैं लेकिन पहचान बनी भोजपुरी के कारण. भोजपुरी और मैथिली में ज्यादा करीब किसे पाती हैं?
गीत-संगीत के स्तर पर तो सबके करीब लेकिन आत्मीय रूप से ज्यादा करीब झारखंड के. मैं अपने घर में सहयोगी के रूप में झारखंड की लड़कियों को ही रखती हूं. उनके साथ रहना, उनसे बोलना-बतियाना सुकून देता है. जन्मभूमि से जुड़े रहने का अहसास. मैं कभी यह कोशिश भी नहीं करती कि वे नागपुरी बोलती हैं तो मेरे से हिंदी में बोलें. मैं भी उनसे नागपुरी सीख चुकी हूं, उसी भाषा में बात करती हूं. खाली समय में उनसे नागपुरी गीत सुनती हूं, सीखती हूं, फिर गाने की कोशिश करती हूं. मुझे आदिवासी जीवन सबसे ज्यादा पसंद है. कोई छल, कपट नहीं, एक निश्छलता है उनकी जीवन पद्धति में.

क्या सीखने की प्रक्रिया अब भी जारी है?

जब शादी होकर ससुराल आई तो सास कहने लगीं कि क्या गाना गाती फिरती हो! बाद में सास ही गीतों को खोज-खोजकर देतीं थीं कि सुन तो यह गीत मेरी दादी सुनाया करती थी, तुम गा सकती हो तो गाओ. शोभा गुरटू मुझे बेहद पसंद हैं. मेरी इच्छा थी कि उनसे कुछ जानूं-समझूं. उनके साथ कार्यक्रम भी किया लेकिन कायदे से मुलाकात नहीं हो सकी. कार्यक्रम से लौटकर फोन किया कि मैं मिलना चाहती हूं, आपसे कुछ सीखना चाहती हूं. शोभाजी बोलीं- शारदा मैं पाकिस्तान जा रही हूं, आती हूं तो मिलना. फिर बात नहीं हो सकी.

और कोई हसरत, जो गीत-संगीत जगत में आप पूरी न कर सकीं?
बचपन से ही, जब मैं गायकी नहीं करती थी, लता मंगेशकर को सुनती रही हूं. पढ़ने के समय में कितने खत मैंने लताजी को लिखे हैं, मुझे खुद याद नहीं. रोज ही लिखकर भेजती थी. पता नहीं उनको वह खत मिले भी या नहीं. जब कभी मुलाकात होगी तो पता चलेगा. एक बार उनसे आमने-सामने की मुलाकात करना चाहती हूं.

और कुछ जिसे पूरा करना चाहती हों!
चाहती हूं कि एक संगीत संस्थान की स्थापना हो, जहां आज के बच्चों को ही में प्रशिक्षण दे सकूं. वहां से निकलने वाले बच्चे अपनी माटी से जुड़े रहें. वह बहकाव में आकर संगीत की मूल आत्मा को ही बर्बाद न करें बल्कि शास्त्रीयता और लोकपरंपरा का असली मतलब समझें और भविष्य में इसे बचाने, बनाने, बढ़ाने का काम करें. यह एक ख्वाब है, जिसे इसी जनम में पूरा करना चाहती हूं.

आपको बिहार कोकिला, बिहार की लता मंगेशकर, मिथिला की बेगम अख्तर, बिहार की सांस्कृतिक प्रहरी, लोक कोयल आदि-आदि कई उप नामों से संबोधित किया जाता है. कई-कई सम्मान मिले हैं. आपको इनमें सबसे ज्यादा क्या पसंद है?
हर सम्मान, उपनाम के साथ जिम्मेदारियां बढ़ती जाती हैं. आपको कोई सांस्कृतिक पहरुआ कहता है तो आपको हर पल सचेत रहना पड़ता है. यह सब जो सम्मान मिले हैं, वे मेरे लिए समाज की ओर से दी गयी जिम्मेदारी के तौर पर हैं.

आपको सारे लोग सुनते हैं. आप किनको सुनना पसंद करती हैं.
राशिद अली खान मुझे बेहद पसंद हैं. पंडित हरि प्रसाद चौरसिया को सुनती हूं. बड़े गुलाम अली खां साहब, बेगम अख्तर मेरे प्रिय कलाकार हैं. लता जी को सुनती हूं, गुलाबबाई की गायकी पर फिदा हूं.

पारंपरिक ठेठ लोकगीत के गावे के पीछे एगो मकसद बा – शारदा सिन्हा

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