अब्दुल ग़फ़्फ़ार जी के लिखल भोजपुरी कहानी पगहा

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चार दिन के दौड़ धूप के बाद बाबूजी आखिर मिल गईलन। इहाँ से चालीस किलोमीटर दूर कैलाश नगर रेलवे स्टेशन के सामने पारस साह के होटल में झाड़ू लगावत रहलन।

बाबूजी के बारे में पुछला पर पारस साह बतौलन की बुढ़ बाबा दु दिन से आस पास टहलन नजर आवत रहलन। परसों मुन्हार के बेरा होटल में आ के हमरा से खाए के मंगलन। भूख के मारे बुढ़ बाबा के मूंह से बोली ना निकलत रहे। हमरा माया आ गईल। इनकरा के बैठा के खाना परोस देहनी। बुढ़ बाबा खाना पर ऐसन टूट पड़लन की बुझात रहे की कई दिन के भुखाइल बाड़न। नाम पता पुछला पर अट के पट बोलत रहलन। खाना खाते ऐही बेंच पर ओठंग गईलन। तबसे ऐहीजा पड़ल बाड़न।

हम बाबूजी के भर अंकवारी पकड़ के रोए लगनी। बाकिर बाबूजी के ऊपर ऐकर कौनो असर ना रहे। पारस साह अचंभा में पड़ गईलन कि बुढ़ जब इनकर बाप हवें त तनिको सुगबुगात काहे नईखन।

अब्दुल ग़फ़्फ़ार जी के लिखल भोजपुरी कहानी पगहा
अब्दुल ग़फ़्फ़ार जी के लिखल भोजपुरी कहानी पगहा

उनकर रिएक्शन भांप के हमरा बतावे के पड़ल कि बाबूजी के बुढ़ापा के बिमारी डिमेंशिया हो गईल बा। डाक्टर बतौलन कि ई भुलाए कि बिमारी ह। ई बिमारी में आदमी के याददाश्त समाप्ति के कगार पर पहुंच जाला। कबो कबो हवा के झोंका के तरे याददाश्त वापस भी आवेला लेकिन फेर गायब हो जाला। कौन समान कहां रखनी, खाना खईनी कि ना, पखाना कईनी कि ना, सब कुछ भूला जाला।

“ओह – – ई बात बा – – अब बात समझ में आईल। ठीक बा भाई, हमरा से जौन गलती सलती भईल ओकरा के माफ कर दी ह$ आ आपन बाबू जी के अपना संघे घरे लेके जा।”
“अरे भाई, ई तोहार एहसान बा कि तु हमरा बाबूजी के जोगा के रखले रहल$ ह$ – ना त का जाने बाबूजी से हमनी के भेंटो होईत कि ना। हम जिनगी भर तोहार ई एहसान कबो ना भुलाइब।

जब बाबूजी के लेके घरे पहुंचनी त$ मलिकाईन के चेहरा पर उ खुसी ना लौकल जौन लौके के चाहीं।

“कहाँ भेंटैनी हं इहाँ के! बाप रे बाप, ई बुढ़ त$ नाक में दम कर के रख देहले बानी। गांव में ओरीओ लोग के सास ससुर बा, बाकिर इहाँ खानी रोआवे वाला नैखे। कबो ईंहा भागत बानी त$ कबो ंहा भागत बानी। अब त$ गाय बैल खानी ईंहा के भी पगहा लगावे के पड़ी।”

ई बात पर हमार पारा चढ़ गईल, आ मेहरारू के कनपट्टी के जड़ी तड़ाक से एगो तमाचा लगा देहनी।

अब त$ मेहरारू चिंघाड़ मचा देहलस।

” अब या त$ रौआ अपना पागल बाप के संघे रहे के पड़ी या हमरा संघे रहे के पड़ी। जल्दी फैसला करीं, ना त$ हम आपन बोरिया बिस्तर ले के चलत बानी नैहर।”
हम पंजाब कमाए वाला आदमी, भकुआ के रह गईनी। कबो बाबूजी के ओर ताकीं त$ कबो अपना मेहरारू के ओर ताकीं।

बाबूजी असहाय हो के टुकुर टुकुर हमार मूंह निहारत रहनीं। ऐसन बुझात रहे कि ंहा के अंदर से इ आवाज निकलत बा ” बबुआ देख लिहल$ – ऐही से नू हम घर छोड़ के भागल रहनी ह$”

हम बिना देर कईले कह देहनी ” तु जा सकत बाड़ू अपना नैहर। हम अपना बाबूजी के ए हाल में छोड़ के नैखी रह सकत।”

मलकिनी मूंह से फूहर पातर बकत चल देहली अपना नैहर आ हम आपन बाबूजी के साथ रहे लगनी।

बाबूजी के सेवा में हमरा जौन सुख मिले लागल ओकर भखान कईल मुश्किल बा। हमार प्रेम आ सेवा पा के बाबूजी के हालात में भी धीरे धीरे सुधार नजर आवे लागल।
पूरा भादो बित गईल। ठीक सवा महीना बाद, बिना कौनो खबर सनेसा के मलकिनी वापस आ धमकली।

” हमसे ना रहल गईल ह$ जी – दिन रात ईहे संसा लागल रहल ह$ की रौआ कैसे खात पियत होखेब । परदेस में त$ दुख तखलीफ झेलबे करी ने, अब घरहू आ के ऊहे दसा सहेब त$ हमार जीयल त$ धिक्कार नू बा।”

मलकिनी के बात में बनावट कम आ सच्चाई ज्यादा बुझाइल त$ हमहूँ पसीज गईनी ।

” जब पति से एतना प्रेम बा, त$ पति के जनम देवे वाला से एतना नफरत काहे बा!”
” नफरत नैखे जी, हमरा से बड़ा भारी पाप भईल बा। रौआ हमार आंख के पट्टर खोल देहनी। आ नैहर में जाके भी एगो बड़ा भारी सबक मिलल बा ”
हम पुछनी ” का?”

हमार भौजाई, आपन बीमार सास के सेवा में एतना मगन रहत बाड़ी के हमरा से भर मूंह बोले के भी रवादार नैखी। हमरा बुझा गईल कि उनकर ई रवैया हमरा के सबक सिखावे खातिर बुझात बा। हमरा आपन गलती के एहसास हो गईल आ हम धीरे से वापस अपना घरे आ गईनी ”
हमार दुनू हाथ अपने आप फैल गईल आ हमरा अंकवारी में समा गईली।

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