कहां गये जांत और वो जंतसार गीत : एस डी ओझा

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बचपन मेरा गांव में बीता था । उस समय तक बहुत कम लोग गेहूं पीसाने के लिए आटा चक्की जाते थे । उस दौर में घर की औरतें हीं सक्षम थीं । वे जांत में हीं गेहूं पीस लेतीं थीं । वे सुबह तीन या चार बजे जागकर जांत चलाना शुरू कर देतीं थीं । जांत के मुंह में मुट्ठी भर गेंहू डालने के बाद जांत अपना काम शुरू करता था । इस मुट्ठी भर गेहूं को जांत में डालने की प्रक्रिया को ” झींक ” डालना कहते थे । एक झींक डालने के बाद औरतें जांत चलातीं थीं । साथ में जतसार गीत भी गाती जाती थीं । जतसार रोपनी गीत की तरह हीं एक श्रम गीत है । श्रम में थकान कम हो और काम में रस मिले , इसके लिए ये गीत राम बाण का काम करतीं थीं । जतसार गीत की स्वर लहरी एक निश्चित अंतराल के बाद उभरती थी ताकि बीच बीच में दम लिया जा सके । जब झींक डाला जाता तब भी गले को दम मिलता । जतसार गाकर औरतें एक एक पसेरी तक गेहूं पीस लेतीं थीं । एक जतसार गीत की बानगी देखिए –

बाबा काहे लागी बढ़ल लामी लामी केसिया ।
बाबा काहे लागी भईल मोर बैरिन जवानियां ।
बाबा हो जे बाटे गईल पियवा मधुबनवा ,
से बटिया तुहुं बताई रे दिहत ना ।

बेटी झारिलअ लामी लामी केसिया ,
कस के बान्हि ल आपन अंचरिया ।
जे बाटे गईल तोर पियवा मधुबनवा ,
से बटिया भईल रे मलिनवा ना ।

( बेटी अपने बाप से पूछती है – हे पिता किस वजह से मेरे बाल बढ़े । क्यों मैं जवान हुई ? हे पिता जिस रास्ते मेरा पति मधुवन को गया , उस रास्ते का पता मुझे बता दो ।

पिता ने कहा – बेटी अपने लम्बे लम्बे बालों को बांध लो । अपने आंचल को भी कस कर बांध लो । जिस रास्ते तेरा पति मधुवन को गया था , वह रास्ता अब मिट गया है । )

इस गीत को पहली बार जब मैंने सुना था तो अपने आंसू नहीं रोक पाया था ।

जांत
जांत

हमारे गांव से एक किलोमीटर की दूरी पर आटा मिल थी । हम सिर पर गेहूं रख उसे पीसाने के लिए ले जाते थे । पीस जाने पर वहां घंटों बैठ उस आटे को चादर पर फैलाकर ठंडा करते थे । तब कहीं जाकर उसे ले आ पाते थे । गर्म आटा सिर को जला देता था । जब साईकिल चलाना आ गया तो उस गर्म आटे को साईकिल के कैरियर पर आसानी से लादकर लाने लगा था । गेंहू पिसाई आटा मिल पर और जनेरा के उलवा (मकई कम भुना हुआ ) की दलाई जांत में होती थी । दलाई का काम मेरी मां बखूबी कर लेती थी । सतुआ भी जांत में हीं तैयार होता था । जब मैं इण्टर में पढ़ रहा था तो मेरी शादी हो गयी ।श्रीमती जी की उम्र यही कोई 16 या 17 साल की रही होगी । अपने परिवार में सबसे छोटी । मां बाप की दुलारी । भाई बहनों की लाड़ली । चक्की को कभी हाथ नहीं लगाया था । जब उलवा दलने की नौबत आई तो उन्होंने पूरी कोशिश की , पर कुछ दिनों बाद एक दिन मां ने देखा कि श्रीमती जी की आंखों से मोटी मोटी बूंदें जमीन

एस डी ओझा जी
एस डी ओझा जी

पर गिरने लगी हैं । उनका यह दर्द एक जतसार गीत में बखूबी उकेरा गया है –

रामा चले नाहीं छोट छोट हाथवा रे ना ।
बड़ बड़ दतवां के बड़ लागे जतवां रे ना ।

मां ने श्रीमती जी को इस काम से निजात दिला दी । अब उलवा भी मिल पर भेजा जाने लगा । बहुत दिनों बाद जब कलकत्ता से भाभी आईं तो घर की सफाई के दौरान उन्हें कोठिला के नीचे उलवा की एक सड़ी गली मोटरी मिली । जाहिर था कि श्रीमती जी ने श्रम से बचने के लिए उलवा छुपा दिया था ,” न रहेगा बांस , न बजेगी बसुरी ” की तर्ज पर । गोतीन ( जेठानी ) ने उन्हें एक्सपोज कर दिया था । इसी बात पर एक और जतसार गीत –

सासु दिहली गहुंआ , ननद दिहली चंगेलिया ।
गोतनी बैरनियां कहे गावअ जतसरिया ।

अब विना जांत चलाए जतसार गीत कैसे गायी जाएगी । इसलिए जब गोतीन ने जतसार गाने को कहा है तो अप्रत्यक्ष रुप से जांत चलाने को हीं कहा है ।

जांत चलाना और स्वीमिंग करना एक हीं बात है । दोनों से सम्पूर्ण व्यायाम होता है । जांत शानदार सेहत और लम्बी उम्र की एक वजह था । आज का आरामतलब समाज इसे समझ नहीं पा रहा है । जांत चलाने वाले को जिम जाने की जरुरत नहीं । इससे शरीर की नसें उभर कर सामने आतीं हैं । श्रीमती जी को उन दिनों सिर दर्द होता था । डाक्टर ने सात दिनों के लिए इण्टर वेनस इंजेक्सन लिखा था । श्रम के अभाव में इनकी नसें ढूंढना एक श्रमसाध्य काम था । रोज बड़ी मश्क्कत के बाद नस मिलती थी । फिर इंजेक्सन दिया जाता था । जांत के पीसे आटे की रोटी बहुत मुलायम व स्वादिष्ट होती है । इसमें गेंहू के सारे तत्व मौजूद होते हैं । आटा मिल में पीसे हुए आटे में ये तत्व अत्यधिक गर्मी के कारण नष्ट हो जाते हैं ।

जतसारी गीत का लोप हो गया है । इसकी अब कोई पूछ नहीं है । जब जांत हीं नहीं रहे तो जतसार गीत का क्या मतलब ? अब तो सेर भर अनाज भी चक्की में ले जाने लगे हैं लोग । कहते हैं कि इतिहास अपने को दोहराता है । यहां भी इतिहास को दोहराया जाने लगा है । एक ऐसी मशीन का ईजाद किया गया है , जिसे साईकिल की तरह चलाया जाता है “ताजा पीसो , ताजा खाओ ” की तर्ज पर । इसे चलाने वाले मोहतरम और मोहतरमाएं आसानी से स्लीम हो सकती हैं । इसे कहते हैं – आम के आम और गुठलियों के दाम । इस मशीन पर गेहूं पीसते समय भी गाया जा सकता है , पर उस गायन विधा का नाम क्या होगा ? जांत तो है नहीं कि उसे जतसार कहें ? साईकिल जैसी मशीन है तो उसे साईकिलसार कहना उचित होगा । इस गाने की तहजीब में भी फर्क होगा । आप गा कर बताएं कि इस मशीन पर इन जतसार गीतों को कैसे साईकिलसार गाएंगे ?

रचनाकार : एस डी ओझा जी

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